सम असम मीडिया


राष्ट्रीय मीडिया कितनी हद तक राष्ट्रीय है? अण्णा हजारे ने यदि अनशन दिल्ली की बजाय हैदराबाद में किया होता, तो क्‍या मीडिया उन्हें इतनी तवज्जो देता।रामलीला मैदान की बजाय रामदेव रामपुर में अनशन करते या हरिद्वार में धरने पर बैठते तो क्‍या होता? क्‍या वे टीवी पर चौबीसों घंटे छाए रहते? इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया के उभरने के बाद यह बीमारी बढ़ी है कि राष्ट्रीय महत्व की घटनाएं उन्हीं घटनाओं को निरूपित किया जाता है, जो दिल्ली या मुंबई में घटी हों। मुसलमानों ने जो विरोध प्रदर्शन मुंबई के आजाद मैदान में किया, वो इसलिए तो गलत है कि उसमें केवल अपने धर्मबंधुओं की चिंता है, मगर इस नजरिए से वो प्रदर्शन ठीक भी है कि मीडिया यानी इलेक्‍ट्रॉनिक चैनल वाले राजधानी से दूर की खबरों को खबर ही नहीं समझते। अहिंदीभाषी प्रांतों के प्रति हिंदी मीडिया में उपेक्षा का भाव है। इंटरनेट, फोन आदि ने पूरी दुनिया को जोड़ दिया है, सो खबरें तो कहीं से भी आ ही जाती हैं। मीडिया का यह बहाना भी ठीक नहीं है कि साधन नहीं हैं। कुछ अखबार तो ऐसे हैं, जिन्होंने आंखों-देखी छापी।
चूंकि मीडिया असम मामले पर बिल्कुल चुप है और इसी चुह्रश्वपी ने दूसरों को मौका दिया है। जिसने जिस तरह से चाहा, बात को आगे बढ़ा दिया। मोबाइलों पर ब्‍ल्यू ट्रूथ के जरिए हिंसा से भरी क्‍लपिंग्स भेजी जा रही हैं। फेसबुक पर भी हिंसा छाई हुई है, उनमें कितनी सच्चाई है, यह नहीं पता, पर लोग उससे भड़क तो रहे ही हैं। यह भी मीडिया का काम है कि वो अफवाहों की छंटाई करे और तथ्य सामने रखे। अगर मीडिया ऐसा करता, तो मुसलमानों में अंदर ही अंदर बेचैनी और गुस्सा नहीं होता। यह आरोप गलत हो सकता है कि मीडिया जानबूझ कर मुसलमानों पर हो रहे कथित अत्याचारों पर पर्दा डाल रहा है, पर यह आरोप एकदम ठीक है कि कथित राष्ट्रीय मीडिया लापरवाह और संवेदनाहीन है। मुंबई में जो हुआ वो नहीं होना चाहिए था और मीडिया पर हमले की सरासर निंदा की जानी चाहिए। विरोध प्रदर्शन का यह तरीका कतई ठीक नहीं है। मगर मीडिया को खुद के गिरहबान में भी तो झांक कर देखना चाहिए। माना कि चौकीदार चोरों से मिला हुआ नहीं है, पर उसे ड्यूटी पर खर्राटे भरते तो पकड़ ही लिया गया है।

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