रेवड़ से कुछ बातें...


जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है, वहां से जन-क्रांति की खबरें जब तब आती रहती हैं, फिर वह चीन हो या पाकिस्तान (कहने को ही वहां लोकतंत्र है) मगर हमारे यहां लोकतंत्र होने के बावजूद कोई हलचल नहीं होती।लगता है वोट देकर हमने अपने हाथ कटवा लिए हैं और इन नेताओं को हक दे दिया है कि वे जो चाहें इस देश का करें। अण्णा हजारे के जरिए एक लहर भ्रष्टाचार के खिलाफ उठी थी, जो आज समय की रेत पर ना जाने कहां बिला गई है। हम अपने आसपास हो रही ज्यादतियों, गलतियों के खिलाफ भी उठ खड़े नहीं होते हैं। हां, जाति के किसी आदमी के साथ कुछ गलत होता है तो एकाध दिन के लिए जाति के लोग ‘समाज’ बनकर सड़क पर उतर आते हैं और ‘फिर वही जिंदगी हमारी है।’ सताया हुआ शख्स किसी जाति या समाज का ही होता है, क्‍या देश का नागरिक नहीं है वो? याद करें कि आखिरी बार हमने कब दूसरों के लिए हवा में मुट्ठी तानी है और अपनी नाराजी जताई है? हम क्‍या भेड़ों का रेवड़ हैं कि हमें किसी गडरिये की जरूरत हर बार पेश आती है? क्‍या जनता खुद सड़क पर आकर सरकार को ठीक नहीं कर सकती? यह कह देना तो आसान है कि सारे ही दल और नेता चोर हैं, मगर हम क्‍या कर रहे हैं?
 हमें किस अवतार का इंतजार है कि वह हमारे सारे दम कानी उंगली छुआकर दूर कर देगा?यदि लोकतंत्र का मतलब जनता का, जनता के लिए, जनता से है तो फिर ये राजनीति के दल और नेता कहां से आ जाते हैं? दो अरब की आबादी को कुछ हजार क्‍यों हांक रहे हैं? संसद में सारे दल जो ढोंग (नाटक तो विधा है) कर रहे हैं,क्‍या हमारी समझ से बाहर है? क्‍या ऐसा नहीं हो सकता कि हम इतनी तादाद में संसद को घेर लें कि हंगामा करने वालों का बाहर निकलना मुश्किल हो जाए? क्‍या हमने वोट के बदले खुद को गिरवी रख दिया है? विरोध और क्रांति के लिए तानाशाही ही क्‍यों जरूरी है? क्‍या हम भी किसी आपातकाल का इंतजार कर रहे हैं कि तब ही सड़क पर आएंगे? क्‍या हम ‘पर्परा’ को यूं ही निभाते जाएंगे और मुंह से उफ! भी नहीं करेंगे? जहां बोलने, सोचने और करने की कानूनी आजादी है, वहां हम मूक-बधिर क्‍यों बैठे हैं? क्‍यों इंतजार है हमे किसी अवतारी-हस्ती का कि वह आएगी और हमें उठाकर खड़ा कर देगी?

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