बेनी के बेन...


सभी नेताओं से यह उम्‍मीद नहीं कर सकते कि वे अच्छे से बोल सकते हैं। अटलजी के बाद उस पाये का बोलने वाला भाजपा तो क्‍या, किसी भी दल में नहीं है।चूंकि हमारे नेताओं को हर समय कुछ न कुछ बोलना ही होता है तो बेचारे कब तक ‘होमवर्क’ के भरोसे रहें। यही वजह है कि बोलते-बोलते लड़खड़ा जाते हैं और बहक जाते हैं। हर दिन कोई बयान पूरे देश में हड़कम्‍प मचा देता है। हम यह क्‍यों मान लेते हैं कि मंत्री, सांसद या विधायक बन जाने भर से इन्हें बोलने का सलीका भी आ जाएगा! पद की बदौलत अधिकार तो आप हासिल कर सकते हैं, मगर समझ इस तरह खैरात में तो मिलती नहीं है। यह तो अपने पुरुषार्थ (इसे नारी के लिए भी उपयोग में लाया जाता है) से ही हासिल किया जा सकता है और बाज वक्‍त तो ऐसा करना संभव ही नहीं है। फिर हम क्‍यों हर दिन की बड़बड़ पर इतना ध्यान देते हैं? क्‍यों इनके बयान पर कान देते हैं, जबकि यह जानते हैं कि इनके बोलने से सतयुग नहीं आ जाने वाला है। दिग्विजयसिंह जैसे भी हैं, जो अच्छे से बोल सकते हैं, मगर उनकी मजबूरी यह है कि वे हर समय ऐसा बोलने की फिराक में रहते हैं कि कई दिन तक धूल बैठने न पाए।
अब मंत्री बेनीप्रसाद वर्मा ने कह दिया है कि महंगाई से वे खुश हैं कि किसानों को अच्छा पैसा मिल रहा है तो यह उनकी अज्ञानता है और इसके लिए उन्हें माफ ही किया जा सकता है कि महंगाई बढ़ने का लाभ दलालों को होता है, किसानों को नहीं। खांटी नेता होने का दावा करने वाले वर्माजी को यह पता ही नहीं है कि किसान के पास ऐसे गोदाम नहीं हैं कि वह अपनी फसल पूरे साल बाजार भाव देखकर बेचता रहे। वह तो खलिहान या खेत में ही फसल बेच देता है और उसकी यही मजबूरी उसे अपना पसीना औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर करता है। किसान को बाजार की महंगाई दो तरह से मारती है कि वह अपनी फसल तो मजबूरी में सस्ती बेचता है और पूरे साल अपनी जरूरत का सामान मजबूरी में महंगा खरीदता है। बेनीप्रसाद वर्मा ने कोई पहली बार अपनी नासमझी तश्तरी में सजाकर पेश नहीं की है। जब हम यह जानते हैं कि बंदे में समझ ही नहीं है तो ऐसे में अनदेखा, अनसुना ही किया जाना चाहिए। इन लोगों की जुबान पर ताला तो आप किसी कानून से नहीं डाल सकते, लेकिन अनदेखा कर इन्हें निराश तो कर ही सकते हैं। इनके लिए ही यह अमर वाक्‍य बना है कि हे ईश्वर, इन्हें माफ कर... ये नहीं जानते कि ये क्‍या बोल रहे हैं

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