श्रद्धा के दुश्मन
श्रद्धा लिखकर देने की भावना है? क्या लिखा हुआ ही तय करेगा कि श्रद्धा है या नहीं? और कैसे तय होगा कि आया हुआ भक्त हमारे धर्म का है या नहीं? जाति और धर्म किसी के माथे पर लिखे नहीं होते।फिर क्यों तिरुपति बालाजी में यह अधर्म अपनाया जा रहा है कि गैर-धर्म वालों से श्रद्धा होने का घोषणा-पत्र लिया जाए! अव्वल आस्था, श्रद्धा, विश्वास और समर्पण लिखने, बताने, जताने और प्रचारित करने के भाव ही नहीं हैं। ये भक्ति मार्ग के वो भाव हैं, जो भक्त और भगवान के बीच भर ही होते हैं। भक्तिभाव किसी धर्म, जाति और स्प्रदाय का बंधक नहीं होता। हिंदू की मजार में आस्था हो सकती है और मुस्लिम गुरुद्वारे में मत्था टेक सकता है, सिख मंदिर में नजर आते हैं तो ईसाई, मस्जिद में। कोई किसी भी धर्म या देवता में श्रद्धा रख सकता है। कहीं यह नहीं है कि लिख दो कि श्रद्धा है। श्रद्धा लिखने की चीज ही नहीं है। जब गुरुद्वारे, गिरजाघर और मस्जिद में जाते समय नहीं पूछा जाता कि श्रद्धा है या नहीं तो फिर तिरुपति के मंदिर में क्यों? क्या गारंटी है कि लिखने वाले के मन में श्रद्धा हो ही और वह तमाशबीन न हो? क्या लिखने-बोलने का संबंध सचमुच की श्रद्धा से है।
ईश्वर और संविधान के नाम पर नेता शपथ लेते हैं और आस्था रखने की घोषणा करते हैं, क्या वह सही निकलता है? यदि शपथ में आस्था और श्रद्धा होती तो देश-समाज की ऐसी दुर्गति और घोटाले होते! मंदिरों के सहारे चल रहे धंधों और व्यक्तियों का संबंध श्रद्धा से है? जब धर्म शुद्ध व्यापार का रूप धर चुका है और पैसे देकर भगवान के वीआईपी दर्शन की सुविधा है तो फिर श्रद्धा जैसे शब्द के साथ मंदिर संभालने वालों की ज्यादती क्यों? एक गलती से पूरा धर्म बदनाम होता है। तिरुपति के बालाजी पहले से ही अमीरों के देवता के रूप में जाने जाते हैं, उन्हें अब इस तरह की ज्यादतियों से उन लोगों से भी दूर नहीं किया जाए, जो भले हिंदू न हों, लेकिन उनकी आस्था उनमें है। भगवान के प्रति श्रद्धा आए हुए में ही नहीं होती, लेकिन उसकी घोषणा कराना नासमझी और अधर्म है। ये धर्म की हानि है।
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