दान का ‘दानव’
कहते हैं एक हाथ अगर दान करे तो दूसरे को भी खबर नहीं होना चाहिए, मगर हमारे यहां तो दान का मतलब ही नाम होता है।सौ रुपए खर्च कर लाख रुपए का नाम कमाने की जुगत की जाती है। एक तरह से चिंदी देकर थान लेने वालों की इस देश में कमी नहीं है। बच्चों को कॉपी देना हो या अस्पताल में फल, कम्बल या दवाई बांटना हो, ऐसा करने वाले ‘कैमरा’ साथ ही रखते हैं। कुछ देने से ज्यादा बहुत पाने की नीयत से ऐसे काम किए जाते हैं।
प्रचार के चक्कर में ये लोग यह भी भूल जाते हैं कि वे लेने वालों का अलग किस्म से शोषण कर रहे हैं, जो कि अमानवीय है। इसी बात पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने नाराजी दिखाई है और कहा है कि इस तरह के काम बंद होने चाहिए। आयोग ने अस्पतालों में दवाई, फल, क्बल या ऐसी ही चीजें सीधे बीमार को देने का विरोध किया है और कहा है कि यदि देना ही है तो अस्पताल प्रबंधन को सीधे ये सामान दिया जाना चाहिए। इन लोगों का आरोप है कि ऐसा करने से प्रबंधन ही सारा सामान रख लेगा और मरीजों तक नहीं पहुंच पाएगा, लेकिन इस दलील में उतना दम नहीं है, अगर ये दानी लोग प्रचार से खुद को दूर रखें।स्कूल खुलते ही मुफ्त कॉपी-किताब बांटने के चित्र अखबार में नजर आने लगते हैं। कभी ध्यान से देखिएगा कि देने वालों के चेहरों की चमक के आगे लेने वालों की दयनीयता कहीं दबा दी जाती है। उस शख्स का चेहरा जरा गौर से देखें जो ये चीजें मुफ्त ले रहा है। अपराध-बोध से भरा नजर आता है उसका चेहरा। उन बच्चों की आंखें ऊपर नहीं उठ पाती हैं, जो अपनी गरीबी की वजह से दान की कॉपी-किताब लेने को मजबूर होते हैं। क्या इसे सच्चे अर्थों में दान कहा जा सकता है? जिस दान को ‘पब्लिसिटी’ के लिए प्रायोजित किया जाता हो, वह तो एक तरह से पूंजी- निवेश ही कहा जाएगा। सच बात तो यह है कि मानव अधिकार आयोग से पहले अखबारों को खुद यह तय कर लेना चाहिए था कि इस तरह के प्रचारित दान के चित्र नहीं छापे जाएंगे। मगर अब आयोग ने नाराजी जता दी है तो उ्मीद करें कि दान का दिखावा अब बंद होगा। बच्चों को पढ़ने-लिखने का सामान दिया जाकर, सीधे स्कूल को देना ज्यादा मानवीय नजर आता है।
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