फिजूल का आसन!

राजनीति कोई योग तो है नहीं कि लच्छेदार भाषणों के प्राणायाम से बात बन जाए। योग गुरु रामदेव का फिर से दिल्ली के रामलीला मैदान पर डेरा जमाना कोई नतीजा नहीं देगा। अण्णा हजारे पर कम से कम किसी तरह का दाग, आरोप और नोटिस आदि तो नहीं थे।
बाबा तो सब तरह से लथपथ हैं। कालाधन वापस लाने के अभियान में बाबा ने वो सब मुद्दे भी जोड़ डाले, जिन पर अण्णा और उनकी टीम धड़ाम हो गई। कलई उतरे बरतन की तरह बाबा अब कितना भी बजें, असर नहीं होने वाला कि उनका पिछला अनशन तमाशे और फिजूल के व्यक्‍त द्वारा किया जा रहा साबित हो चुका है। बड़ी-बड़ी बातें करने वाले बाबा जिस तरह महिला के कपड़े पहनकर भागे थे और रोते-रोते आंदोलन को खत्म करते पाए गए थे, उसी से तय हो गया था कि बाबा आंदोलन भी इवेंट की तरह कर रहे थे। उनमें सच्चे आंदोलनकारी की छवि और विचार ढूंढना फिजूल है। बाबा का एजेंडा भी राजनीतिक ही है और केवल कांग्रेस के विरोध पर टिका है। क्‍या कालाधन केवल कांग्रेसियों के ही पास है? क्‍या भ्रष्टाचार केवल केंद्र सरकार को ही निशाना बनाता है? क्‍या बाबा अपने पर लगे आर्थिक आरोपों से बेदाग बरी हो चुके हैं? क्‍या बाबा ने अण्णा और उनकी टीम का साथ दिया, जो इन्हीं मुद्दों पर लड़ रही थी?
सवाल तो ये भी है कि बाबा जो आंकड़े बताते हैं उनका जरिया क्‍या है और उन्हें कैसे पता चला कि कितना कालाधन कहां है? जाहिर है महत्वाकांक्षी बाबा का एजेण्डा राजनीतिक और बाना जोगी का है। रामदेव यदि बाबा होते तो लोगों को सुखी और स्वस्थ करने के अपने काम योग से ही संतुष्ट रहते और उसे बड़ी ज्मिेदारी मानते कि लाखों लोग अभी भी बीमार और कमजोर हैं, लेकिन रामदेव कभी बाबा थे ही नहीं। योग भी जिसने मुफ्त में नहीं दिया, वो बिना कारण राजनीतिक मजमेबाजी में महज देश सुधारने तो नहीं आएगा। यही वह बात है, जो बाबा को सही नहीं ठहराती। इस बार भी बाबा का जमावड़ा निरर्थक है और किसी राजनीतिक दुर्घटना को घटाने के लिए है, ताकि केंद्र सरकार कठघरे में आ खड़ी हो। देखना है कि सरकार वैसी ही अक्‍लमंदी दिखाती है या नहीं जैसी अभी अण्णा आंदोलन के समय दिखाई।

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