तानाशाही की ओर
एसएमएस पर पाबंदी लगाकर बोलने की आजादी छीनी गई और इसके लिए कुछ भी तर्क दिए जाएं, गले नहीं उतरते, पाबंदी पर शक होता है, क्योंकि इससे शांति कितनी हो पाएगी और हिंसा को रोकने में कितनी मदद मिलेगी।हां, मोबाइल क्पनियों की जेब भर रही है और वैसे भी सरकार इस जेब को भरने के मौके ढूंढती रहती है। इस बार उसे असम हिंसा के नाम पर मौका मिला है, जिसे पूरा भुनाया जा रहा है। ट्राई ने एक दिन में दो सौ से ज्यादा मैसेज करने पर पाबंदी लगा दी थी और इसे जनहित का फैसला कहा जा रहा है। हालांकि हाईकोर्ट ने ट्राई को फटकार लगाई। उसका आधार भी यही था कि ‘ये तो अपनी बात कहने का हक छीनना है।’ जुबान बंद करना है और इस तरह की पाबंदी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लगती रही हैं। कभी किसी किताब पर तो कभी किसी फिल्म पर, कभी कार्टून पर। अब एसएमएस पर पाबंदी लगाकर जुबान पर ताले डाले गए और यह तानाशाही है।
सरकार ने बिना जांचे-परखे यह मान लिया कि एसएमएस भड़काऊ हैं। अगर मुल्क के किसी हिस्से में फंसाद हो रहा है और उसकी जानकारी दूसरे कोने में पहुंच रही है, तो ये सूचनाओं का फैलाव है। हां, अगर इन मैसेज में उकसाने वाली बात हो, तो बात और है, लेकिन जितने भी मैसेज नजर से गुजरे अपील ही नजर आई। अगर किसी को मदद पहुंचाने की बात कही गई हो, या उसके लिए दुआ का कहा गया तो फिर यह भड़काने वाली बात कैसे हो सकती है?किसी ने एक महीने का मैसेज वाउचर डलाया है और पंद्रह दिन की पाबंदी में वो एक भी मैसेज नहीं कर पाया। इससे कंपनियों की झोली तो भरी, लेकिन गरीब उपभोक्ता की जेब से फिजूलखर्ची ही हुई, इसका ज्मिेदार कौन है, क्या अदालत इसका हर्जाना दिलवाएगी और सरकार इसका हर्जाना देगी? इस सबको जाने भी दें, तो यह सोचना भी जरूरी है कि हम किस दिशा में जा रहे हैं, क्या ये तानाशाही की ओर बढ़ता कदम नहीं है। अगर मैसेज से खतरा ही था, तो इसे दूर करने के दूसरे उपाय नहीं थे, क्या सरकार जनता पर इतना भरोसा खो चुकी है? जो इस तरह आजादी को ताक में रखा गया और संविधान दर्ज मूल अधिकार को छीना गया। सवाल किया जा सकता है कि आखिर कब तक इस तरह के हक छीने जाएंगे।
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