गरूर अब नहीं चलने वाला ......
अगर सिंधिया-गुट एमपीसीए के चुनाव में हार जाता तो उनका गरूर टूट जाता, मगर तब विजयवर्गीय-गुट के मगरूर हो जाने का खतरा बना रहता।इस कविताई-न्याय में जहां एक गुट को मगरूर होने से रोका गया है तो दूसरे गुट को भी यह सबक मिला है कि गरूर अब नहीं चलने वाला है और विरासत का दौर अब खत्म हो गया है। तीस बरसों से जिस कथित राज परिवार की क्रिकेट के इस संगठन पर बपौती मान ली गई थी, वह अब इसलिए खत्म नजर आ रही है कि संस्था में दो बार से चुनाव हो रहे हैं। वरना तो महाराज की मर्जी से ही संगठन और उसके प्यादे उठते-बैठते थे। पहली बार देखा कि सुबह की फ्लाइट से आकर शाम को उड़ जाने वाला शाही-प्रतिनिधि इस बार शहर के गली-कूचों में वोट की गुहार, हाथ जोड़- जोड़कर कर रहा था। यही लोकतंत्र का हासिल है कि सिंधिया को सिंहासन से उतरकर सड़क पर आना पड़ा, वहीं विजयवर्गीय-गुट को सड़क से ऊपर उठने की कोशिश में कमर में चोड़ला तक सहना पड़ा। यदि सिंधिया को मजबूरी में यहां-वहां भटकना पड़ा तो विजयवर्गीय को भी मन मारकर शरीफाना हरकतें करना पड़ी। आज यदि दोनों ही गुट मजबूरी में ऐसा कर रहे हैं तो उ्मीद करें कि कल यह उनकी आदत में शामिल हो जाएगा। भले ही विजयवर्गीय गुट का एक भी वोट नहीं बढ़ा हो, लेकिन उसका अपना वोट-बैंक तो बन ही गया है और यही सिंधिया के लिए खतरे की घंटी है। विजयवर्गीय के लिए भी यह चिंता की बात होना चाहिए कि दो साल में उनकी छवि सुधरी नहीं है और समाज का एक वर्ग उन्हें हाथ भर की छेटी पर ही रखना चाहता है।स्थानीय होना यदि विजयवर्गीय को भारी पड़ रहा है तो बाहरी होना सिंधिया के लिए फायदे का सौदा रहा है।
सिंधिया को संदेह का लाभ उसी तरह मिला है, जिस तरह पिछले चुनाव में गुना से उन्हें लोगों ने जिता दिया था। क्रिकेट की इस जीत से सिंधिया-गुट को दो साल का वक्त तो मिल गया है, लेकिन ग्वालियर को क्रिकेट की राजधानी बनाने के उनके सपने में दरारें नजर आने लगी हैं। विजयवर्गीय गुट को मिले वोट अगली बार ज्यादा नजर आ सकते हैं, अगर सिंधिया ने ऐसी कोई हरकत की तो! अब तक तो ‘महाराज’ (पता नहीं ऐसा कहने वालों की जुबान पर छाला क्यों नहीं पड़ जाता) की इच्छा पर ही सारी दुमें हिलती रहती थीं मगर अब इस बात का डर हमेशा बना रहेगा कि मौत ने घर देख लिया है। विजयवर्गीय की भी वही दिक्कत है, जो नरेन्द्र मोदी की परेशानी है कि एक यदि कालिखवाली कोठरी से बाहर निकलने को छटपटा रहा है तो दूसरा खूनी कंदरा से निकलकर आधी-आधी रात को उठकर चादर से खून के धब्बे धोता रहता है। यह लोकतंत्र का ही कमाल है कि मन के खिलाफ जाकर उन लोगों को ऐसे काम भी करना पड़ते हैं, जिनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
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