अपना-अपना धर्म..
अपना-अपना धर्म....
महिलाओं को मस्जिद आने से दुनिया का कोई मौलवी नहीं रोक सकता, क्योंकि उनका हक है, जो इस्लाम ने दिया है और कई मस्जिदें ऐसी हैं, जहां सिर्फ पुरुष ही नहीं जाते, महिलाएं भी नमाज पढ़ती हैं।
हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश की मस्जिदों को छोड़ दिया जाए तो दुनिया में ऐसी मस्जिदें हैं, जहां महिलाओं के लिए भी जगह है और उन्हें रोका नहीं जाता। तमिलनाडु और केरल में भी महिलाएं मस्जिद में ही नमाज पढ़ती हैं और कुछ मस्जिदों में तो एतकाफ भी करती हैं। बड़ी मिसाल हज है। लाखों इकट्ठे होते हैं और एक साथ हज किया जाता है।
उसमें महिला-पुरुष सब शामिल रहते हैं और जिस मस्जिद में नमाज अदा करने की हसरत हर मुसलमान में पाई जाती है, उसमें भी महिलाओं को जगह मिलती है। वैसे भी इस्लाम में जितने हक पुरुष को दिए गए हैं, उससे ज्यादा महिलाओं के लिए हैं, पर तंग जहनियत के चलते वो उन तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। निकाह के वक्त तय की जाने वाली मेहर भी औरत का हक है और खलीफा उमर ने उसके फैलाव पर रोक लगा दी थी, तब एक बूढ़ी महिला ने उमर से कहा था तुम इस पर रोक नहीं लगा सकते, ये हमारा हक है और मोह्मद साहब का दिया हुआ है। उमर ने अपना फरमान वापस ले लिया था।
ऐसे में ये सुनना कि मुंबई की हाजी अली दरगाह पर महिलाओं को अंदर आने से रोक दिया गया या दूसरी और सात दरगाहों पर उनके लिए जगह तंग कर दी गई, अजीब लगता है। इसके लिए मौलवियों के अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन बड़ा सवाल है अगर महिलाओं का दरगाह पर जाना गलत है और इस्लाम इसकी इजाजत नहीं देता तो अभी तक रोका क्यों नहीं गया, जबकि इस्लाम की शिक्षा तो चौदह सौ साल पुरानी है और अगर दरगाहों पर महिला नहीं जा सकती तो क्या पुरुष जा सकते हैं। इसमें भूल सुधार है या कुछ और। इस्लाम तो इस तरह की पूजा का विरोधी है और ये मदीने में देखने को मिलता है, जहां उस आस्ताने को नहीं छूने तक नहीं दिया जाता, जहां मोह्मद साहब सोए हुए हैं। वहां कोई धागा नहीं बांध सकता, न ही वो सब होता है, जो दरगाहों पर दिखाई देता है। ऐसे में दरगाहों पर महिलाओं की पाबंदी अलग-अलग इस्लाम का मुजाहिरा कर रही हैं और कहीं न कहीं उस इल्जाम को ताकत ही दे रही हैं, जो मुस्लिम महिलाओं के शोषण पर लगता रहा है
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