राम को राम-राम!
राम ने यदि धोबी के कहने पर सीता को छोड़ दिया था तो नरेन्द्र मोदी ने किसके कहने पर पत्नी यशोदा बेन को छोड़ा? यदि सुजान वकील और भाजपा सांसद राम जेठमलानी की बात पर विचार करें तो तकलीफ होती है।राम जेठमलानी ने लक्ष्मण की भी हंसी उड़ाई कि उन्होंने हमेशा सीता के पैरों की तरफ ही देखा और धोबी की जगह मछुआरों की बात की। हर बात पर तत्काल भावनाएं आहत कर लेने वाली भाजपा इस पर चुप क्यों है? क्या उसके लिए राम से बड़े मोदी और जेठमलानी हैं? 
क्या अब भाजपा के लिए राम अस्मिता, भक्त और राष्ट्रवाद के प्रतीक नहीं रहे? राम के लिए देश और समाज को सिर पर उठा लेने वाली भाजपा और संघ की खामोशी से साबित हो रहा है कि राम अब उनके लिए क्या हैं। संघ और भाजपा की नजर में क्या अब धर्म की हानि नहीं हो रही है? क्या वह रामद्रोही नेताओं को इसलिए सहन करती रहेगी कि घोटाला युग में वकील से झगड़ा मोल लेने का खतरा कौन उठाए? हर बात पर छह करोड़ गुजरातियों की इज्जत का सवाल करने वाले नरेन्द्र मोदी शायद गर्व महसूस कर रहे होंगे कि जेठमलानी उनके राजनीतिक सेनापति भी हैं। ये सब साबित करता है कि राजनीति वालों के लिए धर्म महज इस्तेमाल की चीज है, भावनाओं की नहीं। भावनाएं तोल-मोल नहीं जानती और नफा-नुकसान नहीं देखती। राम जेठमलानी की बात पर संघ, भाजपा, विहिप और बजरंग दल की चुप्पी साबित करती है कि राम इस्तेमाल भर के लिए थे और अब पार्टी को उनसे कोई काम नहीं। यदि राम से नाता होता तो जेठमलानी को राम-राम कर दिया होता। मामले में सबसे बुरा यह है कि बात कहने वाले शख्स का नाम भी राम ही है।
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