ये बंदिश क्यों ?
किसी को यह याद भी है कि हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए हैं? शायद उस प्रदेश को छोड़ कर शेष भारत को तो बिलकुल याद नहीं होगा... तो उस चुनाव का नतीजा क्या रहा? नतीजा इसलिए याद नहीं आएगा कि वहां वोट तो पड़ गए, लेकिन गिनती अभी तक नहीं हुई है।वोटिंग के डेढ़ महीने बाद वोटों को गिनती इसलिए होगी कि तब तक गुजरात विधानसभा के चुनाव भी हो जाएंगे। क्या हिमाचल प्रदेश के नतीजे का गुजरात के चुनाव पर असर हो सकता है? हां, यदि गुजरात में वोट पड़ने वाले दिन हिमाचल के नतीजे आते तो भी हम मान लेते कि एकाध फीसदी पड़ सकता है। वैसे एक फीसदी भी ज्यादा ही मान लिया गया है। तो फिर डेढ़ महीने तक किसी राज्य के नतीजे रोकने की क्या तुक है? गुजरात के फैसले पर हिमाचल का असर रोकने के लिए पूरे राज्य को क्यों सजा दी जा रही है?
क्या चुनाव आयोग अपनी ईमानदारी दिखाने के लिए लोकतंत्र की जरूरी शर्तों से भी खिलवाड़ कर सकता है? क्या चुनाव आयोग को यह हक है कि वह अपनी चादर कोरी दिखाने के चक्कर में आम आदमी के अधिकार की भी अनदेखी करे? क्या इस देश के अवाम का यह अपमान नहीं है कि उसकी समझ पर इस कदर शक किया जाए कि वह अपना भला-बुरा खुद नहीं समझ सकता है। माना कि वोट देनेवाला बड़ा तबका उतना पढ़ा- लिखा नहीं होता है, लेकिन उसकी समझ उन लोगों से कहीं पक्की होती है, जो ड्राइंग रूम में बैठकर दिमागी अय्याशी तो करते हैं पर वोट नहीं डालते।डेढ़ महीना यानी पूरे पैंतालीस दिन तक किसी राज्य की सरकार घर कैसे बैठाई जा सकती है। हिमाचल में सर्दी पहाड़ों से मैदान तक उतर आई है। आम आदमी इस समय सरकार की तरफ उ्मीद से देखता है। यही उसके लिए मुश्किल का समय होता है, जबकि उसे सरकार से मदद दरकार होती है। हो यह रहा है कि कहने को काम चलाऊ सरकार है, लेकिन काम-धाम कुछ नहीं हो रहा है। सरकारी दफ्तरों में अफसरों- कर्मचारियों के पते नहीं हैं और जरूरी फाइलें भी धूल खा रही हैं, क्योंकि कामचलाऊ सरकार कुछ भी नए फैसले नहीं कर सकती। क्या चुनाव की कीमत आम आदमी को इस तरह चुकाना होगी? एक दिन भी सरकार के बगैर काम नहीं चलता हो, वहां पूरे डेढ़ महीने सरकार ठप कर देना लोकतंत्र की सेहत के लिए ठीक है क्या? गुजरात में देर से चुनाव हो रहे हैं तो उसकी सजा हिमाचल प्रदेश को क्यों दी जाए? डेढ़ महीने के अंतर से होनेवाले चुनाव को दो राज्यों में एक साथ चुनाव भी तो नहीं कहा जा सकता ना...!
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