दरकते किले का प्रबंधक
दूसरी बार नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाकर भाजपा क्या पाएगी, समझ नहीं आता। पहली बार की अध्यक्षता में ही गडकरी कुछ कमाल नहीं दिखा पाए हैं तो दूसरी बार क्यों? क्या पार्टी एकजुट, बेदाग और जन-जन में लोकप्रिय बना दी है?क्या गडकरी के साये में भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों की धूप खत्म है? क्या गडकरी दरकते भाजपा किले के मजबूत किलेदार साबित हुए हैं? क्या खुद गडकरी आमजन के प्रतिनिधि के रूप में पहचाने जाने लगे हैं, जो फिर से उन्हें कमान दी गई? जाहिर है ऐसा कुछ भी गडकरी नहीं कर पाए हैं कि उन्हें दोबारा और वह पार्टी संविधान में संशोधन कर मौका दिया जाता। पार्टी को बेदाग बनाना तो दूर, गडकरी पर ही घोटाले दबाने का आरोप लगा है और लगाने वाला राजनीति का नहीं, भ्रष्टाचार से लड़ने वाली टीम का हिस्सा है।
यदि आरटीआई कार्यकर्ता अंजलि दमानिया ने महाराष्ट्र के सिंचाई घोटाले में हजारों करोड़ के खेल को नहीं रोकने का दोष गडकरी के मत्थे मढ़ा है तो बचाव महज राजनीतिक कवायद ही दिखाता है। वैसे भी गडकरी कार्पोरेट के मददगार माने जाते हैं और महाराष्ट्र की राजनीति में सारे दल ‘व्यापारी’ की तरह हैं। सबके घालमेल जगजाहिर हैं। गडकरी के सामने पार्टी से खुद को बेदाग और जनहितैषी साबित करने की चुनौती है। एक दर्जन भावी प्रधानमंत्रियों वाली पार्टी के अध्यक्ष के रूप में गडकरी की असल ताकत कांग्रेसी कमजोरी भर है। न गडकरी कुशल वक्ता हं, न जनाधार वाले नेता। जिस तरह कांग्रेस में अहमद पटेल जैसे प्रबंधक पार्टी में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं, वैसे गडकरी भी भाजपा में प्रबंधकों की पार्टी के प्रतीक हैं। भाजपा में सेवा, समर्पण और निष्ठा के दिन लद चुके हैं और पार्टी अब प्रबंधकों के हवाले है, भले किला जगह-जगह से दरक रहा हो। भाजपा यदि कांग्रेस-सी लगे तो गलत नहीं।
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