रेल का खेल

यह राहत की बात है कि रेल मंत्रालय पंद्रह साल बाद कांग्रेस के हाथ लगा है। इसे मुख्य दल के पास ही रहना चाहिए, ताकि राष्ट्रीय दल रेल के बारे में कम से कम देश स्तर पर सोच तो सके।अभी तो डेढ़ दशक से रेल बंगाल- बिहार से ही बाहर नहीं आ पाई है और नतीजे में देशभर की रेल योजनाएं सुस्त और अधूरी हैं। मालवा-निमाड़ की इंदौर-दाहोद और धार-छोटा उदयपुर की सुस्त रफ्तार से देश की बाकी जगहों का जायजा अपने आप मिल जाता है। एनडीए सरकार के समय से मुकुल राय के हटने तक चाहे वह अटल सरकार में ममता बनर्जी या नीतीश कुमार हों या फिर मनमहन सरकार में लालू यादव, ममता बनर्जी और दिनेश त्रिवेदी तक बंगाल और बिहार के ही रहे हैं और इन क्षेत्रीय दलों के नेताओं को रेल के सहारे राज्य की सियासत भर से मतलब रहा है। रेल के सहारे नीतीश और ममता ने भले राज्य की कुर्सी हथिया ली हो, लेकिन देश पीछे छूट गया है। होना यह चाहिए था कि इन नेताओं को रेल का खेल अपने लिए खेलने के बजाय देश स्तर पर फैसले लेने थे, जो नहीं लिए गए और अब भारतीय रेल दस लाख करोड़ के भारी नुकसान में पहुंच चुकी है।यह तय-सा हो जाए कि सरकार भले एनडीए की बने या यूपीए की, रेल मुख्य राष्ट्रीय दल के पास ही रहे ताकि सभी राज्यों के साथ बराबरी का व्यवहार हो सके और कोई क्षेत्रीय दल रेल मंत्रालय का खजाना और योजनाएं अपने राज्य तक सीमित न कर पाए। सीपी जोशी ने कल काम संभालने के बाद यह कहकर देश को राहत दी है कि अब किसी एक राज्य की बजाय सभी दूर रेल का लाभ सोचा और दिया जाएगा। बंगाल-बिहार से रेल बाहर निकलेगी, उ्मीद कीजिए।

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