कानून के हाथ... और पुलिस के!
घर में से कथित गुंडों को निकालकर सरेआम किस अपराध के लिए पीटा जा रहा है? क्या पुलिस को यह अधिकार मिल गया है कि वह किसी को भी जब चाहे पीट सकती है? क्या पीटने से ही शहर के सारे गुंडे, पुलिसवालों की तरह सभ्य शहरी हो जाएंगे? क्या पुलिस ने अपने को न्यायालय से भी ऊपर समझ लिया है कि जिसे चाहे, उसे पीट दे? यह क्या बात हुई कि जो एक बार मुलजिम हो गया, उसे पुलिस जब मर्जी आए, उठा लाए और पीटने लगे? किसी एक मामले में यदि किसी एक गुंडे के साथ ऐसा किया जा रहो हो (वह भी गलत, गैरकानूनी है) तो ऐसा भी नहीं है। इंदौर भर के कथित गुंडों की सामूहिक पिटाई से पुलिस को यह भ्रम कैसे हो गया कि शहर में अब अमन-चैन कायम हो जाएगा? बे- वजह (या वजह से भी) किसी के साथ मारपीट से किस सुधार की उ्म्मीद कर रही है खाकी-वर्दी? अगर कोई गुंडा पिछले समय में सुधरने, अपने आपको बदलने की कोशिश में लगा है और ऐसे में हमारी काबिल पुलिस उसे यूं ही घर से निकालकर पीटने लगती है तो क्या वह अपना मन बदल नहीं लेगा? क्या गुंडों को सुधारने का यही जंगली तरीका है पुलिस के पास कि उनकी सरेआम पिटाई कर दो। गेहूं के साथ घुन कितने पीसे जा रहे हैं, पता भी है पुलिस को?
कहने को मानव अधिकार के लिए गाल बजाने वाली इतनी संस्थाएं हैं, मगर कोई भी आवाज नहीं उठा रहा है कि यह गैर-कानूनी ही नहीं, अमानवीय भी है। पुलिस को यह यकीन है कि वर्दी पहनते ही उसे किसी को भी पीटने का अधिकार मिल जाता है और यही वजह है कि कई यूं भी अपराधी बन जाते हैं। रत्नाकर की साधु ने पिटाई नहीं की थी कि वह ‘मरा-मरा’ बोलते हुए वाल्मीकि हो गया। गांधीजी की तस्वीर हर थाने में है, पर यह किसी को याद नहीं है कि ‘अपराध से नफरत करो, अपराधी से नहीं।’ अपराधी भी हमारे समाज का ही अंग है और उसे सुधारने का यह कोई तरीका नहीं है। कोर्ट में तो पुलिस ठीक से अपराध पेश नहीं करती है और चाहती है कि गुंडे उससे डरें तो यह कैसे संभव है? आश्चर्य है कि कथित गुंडों की हर दिन पिटाई का सचित्र समाचार हर दिन छप रहा है, पर कोई रोकने के लिए आगे नहीं आ रहा है। आज ही खबर छपी है कि पुलिस ने पूछताछ के नाम पर लोगों को पीटा और न्यायालय ने पुलिस को दोषी पाया। क्या कानून के हाथ इतने नरम हैं कि पुलिस को अपने सख्त हाथों का सहारा लेना पड़ रहा है? हम क्या आज भी आदिम-युग में जी रहे हैं?
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