सजा इसी का नाम है


शायद अब कोई ऐसा करने की ह्मित न करे, जैसा नरोडा पाटिया की माया कोडनानी ने किया। विधायक और उस पर भी महिला होकर बेकसूरों को मौत की नींद सुलाने वाली माया की हरकत से सब शर्मिंदा थे।गुजरात के दंगे में नरोडा की विधायक के रूप में माया की करतूत इंसानियत को शर्मसार करने वाली थी। बीस दिन के बच्चे से लेकर नब्‍बे साल के बुजुर्ग तक तीन कम सौ लोग मौत के घाट उतार दिए गए। सभी बेचारे दंगाइयों से बचने के लिए एक गड्ढे में छिप गए थे, जहां माया और उनके उत्पातियों ने पहुंचकर मौत का खेल खेला था। यह सजा जरूरी थी। कानून की शक्‍ति और न्याय में भरोसे के लिए ऐसी ही सजा दी जानी थी।अट्ठाइस साल तक माया को जेल में रहना होगा और कम से कम तब तक तो सा्प्रदायिक आग से खेलने वालों को सबक मिलता रहेगा कि ऐसा करने का क्‍या नतीजा निकलता है। कोर्ट ने माया के पक्ष की कोई बात नहीं मानी और उनके महिला होने का भी रहम नहीं किया। मारे गए लोगों में महिलाएं और बच्चे ज्यादा थे तो रहम किस बात का? बीस दिन की जिंदगी यदि पेट्रोल की आग के हवाले कर दी गई तो इससे ज्यादा क्रूरता और क्‍या हो सकती है। देशभर के इस तरह के तत्वों के लिए सबक का काम करेगी यह सजा।
यदि इस मामले में ऐसी सख्त सजा नहीं दी जाती तो ऐसे तत्वों के हौसले बुलंद होते कि दो-चार साल में बाहर आकर फिर अपना खूनी खेल खेल लेंगे। इस सजा ने अप्रत्यक्ष तौर पर नरेन्द्र मोदी को भी सजा सुना दी है कि वो भी गुजरात कांड से बरी नहीं हैं। यदि उनके सहायक ऐसा कर पाए हैं और उसके बाद मंत्री पद से नवाजे गए हैं तो समझने को कुछ बाकी नहीं रह जाता और ऐसा शख्स राज्य का मुख्यमंत्री भले मैनेजमेंट के सहारे बना रहे, देश का मुखिया नहीं हो सकता। नैतिक रूप से यह सजा मोदी को भी मिल ही गई है। माया के साथ न्यायालय का रुख सा्प्रदायिक तत्वों को दंगों की छाया तक से दूर रहने को मजबूर करेगा। इसमें वो लोग भी तारीफ के हकदार हैं, जो सरकारी धमकियों के बाद भी अपने बयान से नहीं पलटे और सजा दिलाकर रहे। समाज की बुराई से लड़ने के लिए ऐसी ही ह्मित और जज्बे की जरूरत है।

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