लोकतंत्र या दलतंत्र!
संसद में जाना नहीं और बात ही नहीं होने देना है तो सांसद होने का मतलब ही क्या! यदि लोगों ने संसद में जाने और बहस करने का हक दिया है तो पहला काम उसका सही इस्तेमाल है।मतदाता ने ज्मिेदारी दी ही इस कारण है कि सांसद सदन में सभी मुद्दों पर सवाल करें और जनता की राय से सरकार को रूबरू कराएं। बहिष्कार तो मतदाता के वोट का अपमान है और ज्मिेदारी से दगाबाजी भी। अरबों रुपए के खर्च से चलने वाली संसद के कई बार के बहिष्कार से आखिर क्या मिला? यदि सुखराम के समय संसद नहीं चलने दी गई थी और वो मुंह देखने और बात करने लायक भी नहीं समझे गए थे तो बाद में बहिष्कार करने वालों के साथ सरकार में कैसे आ गए? बहिष्कार करने वाले या तो पहले गलत थे या बाद में और दोनों ही सूरत में उन्होंने मतदाता को धोखा दिया। इस मामले में भाजपा ने खुद को तानाशाह की तरह पेश किया है और साख गंवाई है।
संसद के ताजा बहिष्कार में भी सबसे ज्यादा यही अखर रहा है कि घोटाला कोयले का हुआ तो बात करने से क्यों बचा गया? एक घोटाले के कारण चौंतीस और खास विधेयक पास होने से रह गए। इसका ज्मिेदार कौन? यदि इन सब पर बात हो जाती और ये पास हो जाते तो देश के खजाने के खर्च का कुछ तो उपयोग होता। समझ से ही परे है कि बात ही नहीं की। जब भेजा ही बात करने के लिए है तो बहिष्कार का हक किसने दिया? दल कैसे तय कर लेते हैं कि कोई सदस्य सदन में नहीं जाएगा और संसद चलने नहीं दी जाएगी? यह लोकतंत्र में दलतंत्र की तानाशाही नहीं तो और क्या है? लोकतंत्र के नाम पर दलतंत्र का कब्जा हो गया है, जो गिरोह जैसा व्यवहार कर देश और समाज का नुकसान कर रहे हैं और बावजूद इसके अपने को लोकतंत्र का पहरुआ बता रहे हैं। मतदाता को अब वोट देने से पहले इस बात का वचन लेने का समय आ गया है कि चुना गया प्रतिनिधि भागेगा नहीं और सदन में हाजिर रहकर अपनी ज्मिेदारी निभाएगा। यदि लोकतंत्र को दलतंत्र से बचाना है तो यह सुधार और चेतावनी जरूरी है।
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