अखरती तारीफ!
वैसे तो कोई भी किसी की तारीफ के लिए खुला है, लेकिन यदि सुप्रीम कोर्ट के जज सरेआम प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह की तारीफ करें तो विरोधियों को अखरना स्वाभाविक है।हो सकता है कि तारीफ कर रहे जज अपनी जगह दुरुस्त और सही हों, लेकिन माहौल तारीफ लायक नहीं होने से असहमत लोगों के माथे पर बल पड़ें तो गलत भी नहीं।
हालांकि विपरीत स्थितियों में तारीफ भी महत्व रखती है और नए सिरे से सोचने को मजबूर करती है कि क्या हो-हल्ला महज राजनीतिक कारणों भर से ही है? क्या सरकार जो कर रही है, उसके दूरगामी नतीजे बेहतर होंगे, जो आज विरोध के लिए विरोध के कारण नजर नहीं आ पा रहे या अनुमान नहीं हो रहा! यदि जज तारीफ करें तो वह प्रमाण है कि फैसला सही और बेहतरी के लिए लिया जा रहा है। जो भी हो, तारीफ से नाराज लोगों की असहमति नाजायज नहीं।शायद इसीलिए हमारे जनजीवन में देश, काल और वातावरण को देख-समझकर बोलने का कहा गया है कि सच होने पर भी सवालों से बचने की सुविधा रहे। जब उपयुक्त न हो, तब न बोलना कारगर माना गया है। जजों की अपनी निजी राय और आजादी है कि वो कसौटी पर कसे जाने के बाद तारीफ करें या निंदा। असहमत होने पर भी विरोध का मुखर नहीं होना अदालत की मर्यादा रेखा का उल्लंघन नहीं होने का भय है। बहरहाल, यदि विवादास्पद विषयों पर जज अपनी राय खुलेआम प्रकट करने से बचें तो बेहतर, क्योंकि असहमत व्यक्त या समूह को यदि उसके खिलाफ अदालत में आना हो तो जाहिर हो चुकी राय उसे आने से रोक सकती है और न्याय के प्रति उसके मन में संशय आ सकता है। इसलिए कही गई बात किसी को अखरे नहीं, यह ध्यान रखना गलत नहीं है।
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