दरार के करार!
मनमोहनसिंह अब भले अपने फैसलों से पीछे सरककर ममता को जाने से रोक लें, लेकिन अब वो उस दरार को नहीं रोक सकते, जो आठ साल से यूपीए को मजबूत किले में तब्दील किए थी।ममता जाती भी हैं तो सरकार बचाने के लिए सपा-बसपा है, लेकिन दोनों ही स्वाभाविक सहयोगी नहीं हैं और मोलभाव के मजबूत खिलाड़ी हैं। इनसे किए करार भी दरार को बढ़ोंगे ही कि दोनों की जरूरतें अलग-अलग हैं। ममता बनर्जी जननेता हैं और उन्होंने जिस मुद्दे पर सरकार का साथ छोड़ा है, कांग्रेस को जमीन पर लाने वाला है। ममता का कद जनता में बढ़ा है और उन्होंने आम आदमी की आवाज और नाराजी को जाहिर कर बाजी मार ली है। सरकार के गैस, डीजल और किराना में विदेशी पूंजी वाले तीनों ही फैसले किसी को भी गले नहीं उतर रहे सिवाय प्रधानमंत्री और मोंटेकसिंह अहलूवालिया के, जो जनता के प्रतिनिधि नहीं हैं और न ही जिनका आम आदमी के सुख-दुख से कोई लीजे-दीजे है।ममता जननेता हैं और आम हिंदुस्तानी की तकलीफ समझती हैं। उन्होंने जिस तरह सरकार को झटका दिया है, वह कांग्रेस को चकित करने वाला है, जो यह माने बैठी थी कि ममता बंगाल के लिए किसी खास पेशकश से मान जाएंगी और सारा गुस्सा केवल इसीलिए दिखा रही हैं। विवादास्पद और लोगों को अखरने वाले फैसले लेकर मनमोहन सरकार के अंत की शुरुआत है यह। आए कोई भी, लेकिन जाना सरकार को है। अब कब तक सरकार दम भर पाएगी, करारों पर निर्भर है। दरार तो सामने है, जो दरकने को तैयार है।
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