बोलने पर बंधन!

क्‍या सांसद को किसी की तारीफ का हक नहीं है? क्‍या किसी पार्टी का सांसद होना इस बात का सबूत है कि आपका कहा पार्टी का माना जाएगा?यदि नहीं तो क्‍या सांसद की अपनी कोई निजी पसंद या विचार नहीं हो सकते? कांग्रेस सांसद विजय दर्डा ने यदि अहमदाबाद के जैन समागम में नरेन्द्र मोदी की तारीफ कर दी और उन्हें शेर बता दिया तो क्‍या आसमान टूट पड़ा। जिस अराजनीतिक समारोह में सांसद गया है और वहां यदि राज्य का प्रशासनिक मुखिया मौजूद है तो शिष्टाचार में कही बात को तूल देना ओछी हरकत है। 
कांग्रेस आलाकमान ने दर्डा से सफाई मांगकर तंगदिली का परिचय दिया है। राजनीतिक दलों में सांसदों को बंधुआ मानने की बुराई सभी में है। मध्यप्रदेश के सांसद रघुनंदन शर्मा ने अपनी सरकार के बुरे कामकाज पर खुलेआम कुछ कह दिया तो पार्टी ने गुस्से में उन्हें प्रदेश उपाध्यक्ष पद से हटा दिया। ऐसे ढेरों नमूने हैं। ममता बनर्जी ने तो अपने रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी को ही चलता कर दिया कि बोलने से पहले मुझसे पूछा क्‍यों नहीं?या सांसद को बिना पार्टी की अनुमति के कुछ बोलने का कोई हक नहीं। यदि ऐसा ही है तो फिर लोकतंत्र का पाखंड और दिखावा क्‍यों? क्‍या मतलब रह जाएगा जब सांसद मन की कह नहीं पाएंगे और बंधुआ मजदूरों की तरह हाथ उठाने और लाठियां पीटने के काम के रह जाएंगे। इस बुराई को सभी दलों से दूर किए जाने की जरूरत है। ऐसे ही कारणों के चलते अपने को सबसे ज्यादा बुद्धिमान और लोकतांत्रिक होने का दावा करने वाली माकपा ने सोमनाथ चटर्जी जैसे धुरंधर सांसद को घर बैठा दिया, जिनकी देश को बहुत जरूरत थी। न जाने कितनी ही प्रतिभाएं दलों के बोलने के बंधन के दलदल में धंसकर मुख्य धारा से अलग हो गईं और उनके योगदान से देश वंचित रह गया। दर्डा ने यदि मोदी की तारीफ की है तो बड़े मन से लिए जाने की जरूरत है कि उन्होंने यह किसी चुनाव सभा में नहीं, धर्मसभा में कहा है और जहां राजनीतिक आलोचना का न तो मौका था और न मंच।

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