जोर-जबर्दस्ती यानी सहमति

जोर-जबर्दस्ती यानी सहमति

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कह रहे हैं कि ग्रामीणों की रजामंदी से ही उनकी जमीन ली जाएगी, पर जब इस सहमति के लिए पुलिस, प्रशासन और राजनीति एक साथ हो जाए और किसान को उसकी जमीन छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाए तो यह सहमति सिर्फ जोर-जबर्दस्ती है।
दरअसल, हो यही रहा है। किसी दलित की जमीन मॉल के लिए छीन ली जाती है, तो किसी किसान की जमीन राष्ट्रीय स्तर के संस्थान के लिए। किसान इस सरकार से लड़ नहीं पाता है और बेमन से ही जमीन सौंप देता है। उस बेचारे की इतनी ह्मित कहां कि वह बुलडोजर का सामना कर अपनी झोपड़ी बचा सके। अपने खेत की बागड़ पर लगे झाड़ों को कटने से बचा सके। ऊपरी दिखावे के लिए तो यह सहमति लगती है, लेकिन क्‍या यह सहमति है? कभी सड़क के लिए तो कभी सरकारी तड़क-भड़क के लिए किसानों की जमीन छीनी जा रही है। जब भोपाल से कोई अफसर, मुख्यमंत्री के हेलिकाप्‍टर को उतारने के लिए किसान की जमीन को हथियाता है, तो बेचारा किसान क्‍या करे? सरकार की सरकार कौन।
इंदौर में आईआईटी और अन्य चीजों के लिए जिन किसानों की जमीन को छीना गया है, उनका दिल ही कहता होगा कि वे कितने खुश हैं। सरकार तो थोड़ा-बहुत मुआवजा देकर पल्ला झाड़ लेती है, पर बेचारों की रोजी-रोटी छिन जाती है। महाराष्ट्र, तमिलनाडु में परमाणु प्‍लांट के लिए, ओडिशा में पास्को के लिए, यूपी में मायावती के मायाजाल के लिए और मध्यप्रदेश में विभिन्न योजनाओं के लिए किसानों से जमीनें छीनी जा रही हैं। कभी-कभी मंत्री ही नहीं, मंत्री के गुर्गे भी छीन-झपट में हैं, पर ऊपर से कहा जा रहा है कि किसान ने खुद होकर जमीन दी है। आप कपाल पर बंदूक तान कर किसान के खेत की पाल तोड़ने को कहें तो बेचारा किसान यही कहेगा- जी हुजूर। अब मुख्यमंत्री इस थरथराते किसान के जी हुजूर को उनकी सहमति कहें तो उनकी मर्जी, पर है तो यह जोर-जबर्दस्ती।

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