विदा ‘महामहिम’!
राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने प्रोटोकाल में ठीक ही बदलाव किया है कि अब राष्ट्रपति भवन में महामहिम की जगह राष्ट्रपति महोदय भर कहा जाएगा। अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही महामहिम कहने की पर्परा बंद कर दी गई है।
बहुत जरूरी था यह कि अंग्रेजी शासकों के अहंकार, सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रतीक और पर्पराएं क्यों ढोई जाएं? जब राजशाही है ही नहीं, लोकतंत्र में सब बराबर हैं तो फिर ‘हीज ए सीलेंस’ जैसे संबोधन अखरना ही चाहिए। लोकतंत्र में यदि महामहिम कोई है तो वह आम मतदाता हैं, जिसका व्यवस्था पर राज है। वाइसराय और रेसीडेंट अंग्रेज शासकों की बनाई पर्पराएं आज भी इस कारण जिंदा हैं कि कुर्सी पर बैठने वालों को राजा होने का अहसास होता है और वो उसे बदलते नहीं। जब डॉक्टर अब्दुल कलाम राष्ट्रपति थे और गांधी समाधि पर उनके जूते उतारने सहायक आगे बढ़ा तो उन्होंने रोका कि ये क्या कर रहे हो? अपने जूते मैं खुद खोलूंगा और पहनूंगा। आज से ये पर्परा मैं बंद करता हूं। अच्छा सुधार है यह और इस तरह की वो सारी पर्पराएं और नियम सभी दूर बदलने की जरूरत है, जो फिजूल है।
राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री किसी भी जिले में जाते हैं तो मुख्यालय पर पुलिस की टुकड़ी सलामी देती है। क्या मतलब है इसका? फिजूल है यह। मंत्री अपने काम से आएं तो पुलिस की सलामी क्यों? जनता के सेवक हैं या राज्य के राजा, जो उन्हें सलामी दी जाए। इसी तरह थानों में शाम की कवायद ‘रोल काल’ भी बंद होना चाहिए कि अंग्रेजों के समय भारतीय सिपाहियों को रोजाना जांचने के लिए इसकी शुरुआत की गई थी। आज नहीं तो कल ये सब बंद करना पड़ेगा कि इससे गुलामी की मानसिकता से जुड़े होने के अलावा कीमती समय और धन का भी नुकसान होता है। प्रणब मुखर्जी ने जो शुरुआत की है, इसका असर थाने तक आए तो बेहतर।
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