धर्म के कपड़े!
महावीर इसलिए भगवान हुए कि ज्ञान प्राप्त में कपड़ों तक का ध्यान न रहा और उनके मानने वालों का सारा ध्यान केवल कपड़ों पर ही है।
गुना के जैन मंदिरों में बच्चों को जींस-टॉप पहन और सजधज कर आने पर रोक लगा दी गई है। जो ऐसा नहीं करेगा, उसे सजा दी जाएगी बहिष्कार की। क्या जींस-टॉप कपड़े नहीं हैं? अश्लीलता कपड़ों में होती है या विचारों में? क्या पूरी ढंकी स्त्री को देखकर मन में गलत ख्याल नहीं आता? क्या ऐसी फजूल की रोकटोक से आने वाली पीढ़ी धर्म के प्रति लगाव रख पाएगी? क्या कोई धर्म रोकटोक से कभी फलाफूला है? क्यों ऐसा करते हैं हम कि धर्म की हानि हो। मंदिर में भक्त का भगवान से रिश्ता भाव का होता है, पहनावे का नहीं। क्या जींस-टॉप नहीं पहनकर आने वाले को भगवान प्राप्त हो जाते हैं? रोकटोक से ही यदि सामाजिक और धार्मिक सुधार हुए होते तो ये दुनिया अपराध और बुराइयों से कभी की मुक्त हो चुकी होती। सवाल तो यह भी है कि अहिंसा को परमधर्म मानने वाले समाज में ऐसी रोक क्या वैचारिक हिंसा नहीं है?
मनुष्य के चाल, चरित्र और चिंतन का पहनावे से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा है। जींस में देवता से पुरुष हो सकते हैं और साधु के चोले में शैतान। इस तरह की रोकटोक से हम उन लोगों को ताकत देते हैं, जो अलगाव के लिए धर्म और स्प्रदाय का इस्तेमाल अपने बुरा इरादों के लिए करते हैं। यदि कश्मीर में आतंकवादी सभी महिलाओं के लिए बुर्का अनिवार्य करते हैं तो हमारी इस तरह की हरकतें उनके लिए सहारे का काम करती है। स्त्री समाज को जकड़ने की नहीं आजादी देने की जरूरत है। भक्त का भाव जींस-टाप का गुलाम नहीं है। कब समझेंगे हम।
गुना के जैन मंदिरों में बच्चों को जींस-टॉप पहन और सजधज कर आने पर रोक लगा दी गई है। जो ऐसा नहीं करेगा, उसे सजा दी जाएगी बहिष्कार की। क्या जींस-टॉप कपड़े नहीं हैं? अश्लीलता कपड़ों में होती है या विचारों में? क्या पूरी ढंकी स्त्री को देखकर मन में गलत ख्याल नहीं आता? क्या ऐसी फजूल की रोकटोक से आने वाली पीढ़ी धर्म के प्रति लगाव रख पाएगी? क्या कोई धर्म रोकटोक से कभी फलाफूला है? क्यों ऐसा करते हैं हम कि धर्म की हानि हो। मंदिर में भक्त का भगवान से रिश्ता भाव का होता है, पहनावे का नहीं। क्या जींस-टॉप नहीं पहनकर आने वाले को भगवान प्राप्त हो जाते हैं? रोकटोक से ही यदि सामाजिक और धार्मिक सुधार हुए होते तो ये दुनिया अपराध और बुराइयों से कभी की मुक्त हो चुकी होती। सवाल तो यह भी है कि अहिंसा को परमधर्म मानने वाले समाज में ऐसी रोक क्या वैचारिक हिंसा नहीं है?
मनुष्य के चाल, चरित्र और चिंतन का पहनावे से कोई लेना-देना कभी नहीं रहा है। जींस में देवता से पुरुष हो सकते हैं और साधु के चोले में शैतान। इस तरह की रोकटोक से हम उन लोगों को ताकत देते हैं, जो अलगाव के लिए धर्म और स्प्रदाय का इस्तेमाल अपने बुरा इरादों के लिए करते हैं। यदि कश्मीर में आतंकवादी सभी महिलाओं के लिए बुर्का अनिवार्य करते हैं तो हमारी इस तरह की हरकतें उनके लिए सहारे का काम करती है। स्त्री समाज को जकड़ने की नहीं आजादी देने की जरूरत है। भक्त का भाव जींस-टाप का गुलाम नहीं है। कब समझेंगे हम।
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