दुनिया में सबसे ताकतवर वह है जो अकेला है....
दुनिया में सबसे ताकतवर वह है जो अकेला है.....
कोई लेखक ऐसा होगा जिसे इस तंत्र और उसके ‘पुर्जों’ ने उसके लेखन की आड़ में परेशान करने की कोशिश न की हो। ‘उनकी बात मत करो, उन्हें लिखने से फुर्सत मिले तब न! अरे वे तो फाइलों पर भी कहानी गढ़ देते हैं।कोई नोट इस तरह लिखते हैं जैसे बड़े-बड़े लेख या कहानियां लिखते हों। भाई साहब! हमारी तरह काम करना पड़े तो सब लिखना-पढ़ना भूल जाएंगे। माता रानी की कसम...! हमारी हालत तो यह है कि हम अखबार भी संडे को ही पढ़ पाते हैं...!’ ये चंद क्य हैं जो दफ्तर के बाबू किसी लेखक सहकर्मी के बारे में कहते हुए सुने जा सकते हैं। अब जरा केवल रविवार को ही अखबार पढ़ने की बात कहने वाले, हर नवरात्र में माता रानी वैष्णो देवी और देशभर के तीर्थों की यात्रा सरकारी खाते से करने वालों की मेहनत का जायजा लेते हैं। अपने मुंह से अपनी क्ल की प्रशंसा में हांफते ये तथाकथित अफसर शायद ही कभी समय से दफ्तर पहुंचते हों, लेकिन चपरासी के एक दिन भी देर से आने पर जरूर उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू कर देते हैं। वे नौ बजे के दफ्तर में भले ही ग्यारह बजे पहुंचें, चपरासी सुबह नौ बजे ही दरवाजे पर खड़ा मिलना चाहिए। अफसरी दफ्तर में आते ही शुरू हो जाती है।इन सरकारी ‘दोस्तों’ को बड़े-बड़े काम करने होते हैं! अपने अधीनस्थों के सामने अपनी उपस्थिति की मुनादी किसी न किसी बहाने करने के बाद शुरू होता है खास दोस्तों के साथ चाय का दौर। शुरुआत कहीं से भी हो सकती है- ‘रिलायंस का शेयर बढ़ेगा पार्टनर, ले डालो! कुछ टाटा के भी। मैंने दोनों की रिपोर्ट देख ली है। इन शेयरों पर अमेरिकी मंदी का भी असर नहीं पड़ेगा। यह तो सीधा-सीधा गोल्ड है।’ श्री ‘ग’ भी आ गए, लेकिन वे अपनी चिंता में डूबे होते हैं- ‘यार, मैंने आयोग के पास दो महीने पहले शिकायत की थी गुप्ता को उस सीट से हटाने की। अभी तक कुछ नहीं हुआ।’ इस पर ‘ब’ जी रास्ता सुझाते हैं- ‘बॉस से कहिए न! इनके पिता और आयोग के अध्यक्ष विधानसभा में साथ थे। कहिए तो विधानसभा में प्रश्न करा दें! उनकी प्राइवेट सेक्रेटरी बॉस की खास दोस्त हैं। बॉस जिंदादिल है और ह्म्मिती भी।लेकिन बात आगे नहीं बढ़ रही! किसी दिन चलते हैं!’ सामने बैठे बॉस खिलखिलाते हैं- ‘पिछली बार तो कार के कुछ मॉडल भी प्रगति मैदान में साथ-साथ देखे थे। मुझसे एक बार अमरनाथ यात्रा पर साथ जाने को कह रहे थे।’ यह सुनने के बाद ‘द’ जी कहते हैं- ‘अमरनाथ क्यों, मानसरोवर भी ले चलेंगे!’ अचानक वे सभी बात करते- करते चुप हो जाते हैं और उनमें से एक वहीं बैठे लेखक से गुजारिश करते हैं- ‘यार! तुम लिख मत देना।’ लेखक कहते हैं- ‘क्यों, सच को लिखा नहीं जाना चाहिए?’ उन सबके चेहरे पीले पड़ जाते हैं। इसी तरह की बातों का क्रम शाम तक चलेगा। इसके अलावा- ‘यार, घर जल्दी जाकर करें भी क्या? यहां चाय है, चपरासी है, एसी है। एकाध फाइल भी निपटा देते हैं। घर देर से पहुंचेंगे तो थोड़ा रौब ही बढ़ेगा, दफ्तर के बॉस और दोस्तों पर भी!’
पदोन्नति या मलाईदार पदों को दोस्तों के साथ झटकने या खाने के लिए और संसद का काम या दूसरी बड़ी ज्मिेदारी आए तो इन्हें फिर उसी लेखक की याद आती है। एक स्वर में कहेंगे- ‘सर! उनके पास ज्यादा काम नहीं है, तभी तो लिखते हैं। उन्हीं को दे दीजिए। थोड़ा व्यस्त भी रहेंगे।’ चलो यह भी मंजूर! कभी- कभी लेखक भी सांप की तरह रंग बदलते हैं। हरी घास में हरा तो पानी में पनियल। एक वरिष्ठ बोले- ‘और क्या लिख रहे हो’ तो लेखक तुरंत उसकी कुटिलता समझ कर जवाब देते हैं- ‘सर! कभी लिखता था।अब तो बरसों से कुछ नहीं लिखा। इस सीट पर काम ही इतना है!’ इसका सबक दरअसल यह है कि नया लेखन न बॉस के सामने पड़े, न बाबू दोस्तों के। लेखक भरसक छिपाते हैं। झूठे और मक्कार लोगों के साथ ऐसे ही निभा सकते हैं। ऐसे विघ्न संतोषी दफ्तर और बाहर भरे पड़े हैं। कहीं अफसर हैं तो लेखक भी बन गए। कुछ कविया लेते हैं। कुछ कवियों और कलाकारों ने ऐसा किया भी। दफ्तर ही नहीं गए और गए भी तो कविता पहले, काम बाद में, लेकिन ऐसा कहां नहीं है, विश्वविद्यालय से लेकर नौकरशाही तक? लेखक को लगता है कि वह नितांत अकेला पड़ गया है, लेकिन वह लेखक ही क्या जो अकेला पड़ने से डर जाए। किसी ने ठीक ही कहा है- ‘दुनिया में सबसे ताकतवर वह है जो अकेला है।’
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