मैल और मैला!


मन में मैल आ जाता है जानकर कि आजादी के पैंसठ बरस बाद भी देश की आधी से अधिक जगह पर सिर पर मैला ढोने की कार्रवाई जारी है।केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री मुकुल वासनिक कहते हैं कि इस बारे में बनाए अधिनियम में कई खामियां हैं और सुधार के लिए उसे विधि मंत्रालय भेजा गया है, तो जानकर दुःख और अचरज दोनों होते हैं। 1993 में बने अधिनियम में यदि खामियां थीं, तो सुधार के लिए सोचने में ही बीस बरस लग गए? अभी भी हम कानूनी पेचिदगियों में ही उलझे हैं, तो इस गंदी और सिर झुका देने वाली प्रथा को खत्म करने का अमल कब होगा? जब नरसिंह राव प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने लालकिले से घोषणा की थी कि ये शर्मनाक काम अब पूरी तरह बंद कराया जाएगा और नतीजा क्‍या है, सामने है। जाहिर है कुछ भी ईमानदारी से नहीं हुआ।
दरअसल, कानून बनाने और सख्ती से अमल लाने से भी कुछ नहीं होगा, जब तक इस बारे में गांव-गांव, घर-घर जाग्रति न हो। ये गलत काम है और इसे कराया नहीं जाना चाहिए, ये भाव और इसका विकल्प जब तक हर व्यक्‍त के पास नहीं होगा, तब तक मैला ढोने की प्रथा बंद नहीं की जा सकती और बंद होने पर ऐसे सफाईकर्मियों की आजीविका की चिंता भी सरकार को करनी होगी। यदि ये प्रथा खत्म हो जाए, तो ऊंच-नीच की आधी बुराई अपने आप खत्म हो जाए। गांधीजी इसीलिए मैला खुद साफ करते थे और आश्रम में रहने वालों से भी कराते थे कि ये सहज और सभी के हिस्से आया काम लगे। सरकार यदि सचमुच में इस बुराई को खत्म करना चाहती है, तो गांव-गांव में सुलभ और सस्ते शौचालय जरूरी भी हैं और कारगर भी। सोचा जाए, इस पर। प्रधानमंत्री सड़क योजना की तरह इस बारे में भी ऐसी ही अनिवार्य कार्रवाई की सख्त जरूरत है

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