हजारों करोड़ रुपए की बिजली खरीदने की व्यवस्था का कोई रिकॉर्ड ही नहीं ..............
मध्य प्रदेश में उपभोक्ताओं को 24 घंटे बिजली मुहैया कराने लिए बिजली खरीदी का ऐसा खेल खेला जा रहा है कि कंगाली के कगार पर खड़ी सरकार को हर साल हजारों करोड़ रुपए की चपत लग रही है। हाल ही में बिजली कंपनी में बिजली खरीदी के नाम पर 4 हजार 139 करोड़ के घोटाले की बात सामने आई है। मनमानी दरों पर खरीदी के आरोप की शिकायत मुख्य सचिव, केंद्रीय सतर्कता आयोग, ईओडब्ल्यू भोपाल तथा डीआईजी भोपाल से की गई है। सबसे बड़ी बात यह है कि बिजली कंपनी ने यह बिजली उस कंपनी से खरीदी है जो ब्लैक लिस्टेड है। हद तो यह देखिए कि एक तरफ कंपनी मनमानी दरों पर बिजली खरीद रही है, वहीं दूसरी तरफ बिजली कंपनी के पास खरीदी का कोई हिसाब नहीं है। पावर प्लांट बिना किसी रीडिंग के बिल भेजते रहे और कंपनी करोड़ों रुपए चुकाती रही। यह देखने वाला कोई नहीं था कि प्लांट ने कितने मेगावाट बिजली सप्लाई की।
जब से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मप्र में 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने की घोषणा की है तब से मनमानी तरीके से बिजली खरीदने का गोरखधंधा शुरू हो गया है। लेंको अमरकंटक पावर कम्पनी से बिजली खरीदी के मामले में वर्ष 2012 से अब तक 4139 करोड़ रुपए के घोटाले का सनसनीखेज आरोप नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच के अध्यक्ष डॉ. पीजी नाजपाण्डे ने लगाया है। उन्होंने बताया कि बिजली खरीदी की दर 2.20 पैसे नियत हुई थी मगर विद्युत विभाग ने इसे 2.83 पैसे की दर से खरीदा है। इस प्रकार प्रति यूनिट 63 पैसे ज्यादा देकर 300 मेगावाट बिजली खरीदी जा रही है। डॉ. नाजपाण्डे ने बताया कि प्रदेश के ऊर्जा विभाग ने लेंको कंपनी को 14 फरवरी 2012 को ब्लैकलिस्टेड किया था क्योंकि कंपनी ने प्रदेश सरकार को बिजली देने का समझौता तोड़ा था।
इस कंपनी ने अन्य प्रदेश को बिजली बेची और 623 करोड़ रुपये की कमाई कर ली थी। इसके कुछ ही महीने बाद यानि 16 अक्टूबर 2012 को लेंको को ब्लैकलिस्टेड करने का आदेश वापस लेते हुए कंपनी से पूर्व निर्धारित रेट से 63 पैसे ज्यादा देकर आगामी 25 वर्षों तक बिजली खरीदने का समझौता किया। मंच ने चेतावनी दी है कि यदि कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जाती है तो वह हाईकोर्ट की शरण में जाएगा। उनका आरोप है कि बिजली खरीदी के इस अनुबंध को कराने में मप्र विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन राकेश साहनी की मुख्य भूमिका थी। मंच ने आरोप लगाया कि मप्र विद्युत नियामक आयोग द्वारा सात मार्च 2007 को 2.20 रुपए प्रति यूनिट दर निर्धारित की गई थी, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। क्या लेंको ने इस रेट को स्वीकारा नहीं था। इस बाबद प्रदेश की बिजली कंपनियां चुप बैठी हैं। सच्चाई यह है कि अधिकारियों ने जान-बूझकर ऊंचे रेट स्वीकार किए हैं।
खरीदी का कोई हिसाब ही नहीं
बिजली कंपनी आप से हर यूनिट का दाम वसूलती है पर खुद की खरीदी का कोई हिसाब नहीं रखती। पावर प्लांट बिना किसी रीडिंग के बिल भेजते रहे। कंपनी करोड़ों रुपए चुकाती रही। यह देखने वाला कोई नहीं था कि प्लांट ने कितने मेगावॉट बिजली सप्लाई की। सबसे ज्यादा गड़बड़ी सोलर व विंड के पॉवर प्लांटों में सामने आई है। मामला खुलने पर स्टेट लोड डिस्पैच सेंटर (बिजली की उपलब्धता की निगरानी करने वाला विभाग) ने 37 पॉवर प्लांट का भुगतान रोक दिया। इन पॉवर प्लांटों में मीटर लगा ही नहीं था। कंपनी 200 पॉवर प्लांटों से बिजली खरीदती है। प्रदेश में बिजली की डिमांड के मुताबिक सप्लाई कहा कितनी देना है। इस काम को स्टेट लोड डिस्पैच सेंटर से मैनेज किया जाता है। पॉवर प्लांट से बिजली पैदा होकर सीधे ग्रिड के जरिए सप्लाई की जाती है। यहां से सब-स्टेशन के लिए अलग-अलग लाइनों पर बिजली दौड़ती है। प्लांट के अलावा लोड डिस्पैच सेंटर में मीटर लगा होता है जहां से पैदा होकर ली गई बिजली के आंकड़े एकत्र होते हैं। वाकई बिजली आंकड़े के हिसाब से मिली या नहीं इसकी जांच करने के लिए अलग से कोई विभाग नहीं है। सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता राजेन्द्र अग्रवाल ने इस मामले पर मप्र विद्युत नियामक आयोग के सामने मप्र पॉवर मैनेजमेंट कंपनी की हकीकत बयां की। हैरानी जताई कि करोड़ों रुपए की बिजली निजी प्लांट से खरीदी हो रही है लेकिन इसकी वाकई में ऐसा होता है कि नहीं इसकी जांच नहीं होती। आयोग ने भी इस अपत्ति को गंभीरता से सुना।
मीटर नहीं लगाया तो किया सस्पेंड
मप्र पॉवर मैनेजमेंट कंपनी ने 37 पॉवर प्लांट की एनर्जी अकाउंटिंग सस्पेंड कर दी है। जनवरी माह में ये कार्रवाई हुई। इन प्लांट से बिजली तो कंपनी ले रही है लेकिन कितनी, इसका कोई रिकार्ड नहीं बन रहा। सस्पेंशन से प्लांट को जनवरी से बिजली का भुगतान नहीं होगा। क्योंकि उनके आंकड़े नहीं जुटाए जा रहे हैं। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ऑफ इंडिया में पॉवर प्रोड्यूसर को टेली मीटरिंग लगाना अनिवार्य है। इससे बिजली खरीदी मेगावाट में दर्ज होती है। लोड डिस्पैच सेंटर में डाटा का रिकार्ड होता। इससे आसानी होती है। पिछले सालभर से सभी प्लांट को कई दफा मीटर लगाने को कहा गया। नहीं मानने पर कार्रवाई हुई। एसएलडीसी के मुख्य अभियंता पीआर वेंडे के मुताबिक पॉवर प्लांट पर बिजली की रीडिंग के लिए लगे मीटर से छेड़छाड़ संभव नहीं है। ये हाई एक्यूरेसी के पॉइंट 2 क्लास के मीटर होते है। मेन मीटर और चेक मीटर प्लांट और एसएलडीसी में लगा होता है।
कैग करे जांच, जनता पर बोझ
आपको जानकर हैरानी होगी कि विभाग के पास पूर्व खरीदी का हिसाब नहीं है और उसने वित्तीय वर्ष 2016-17 में 23 हजार 726 करोड़ रुपए की बिजली खरीदी की योजना तैयार कर ली है। इसमें1500 मेगावाट करीब सोलर और विंड से बिजली खरीदी का अभी करार है। सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता एके जैन कहते हैं कि बिजली खरीदी की निगरानी एक बड़ा इश्यू है। इसमें गड़बड़ी की पूरी संभावना है। चूंकि नुकसान की भरपाई टैरिफ बढ़ाकर कंपनी जनता से करती है इसलिए सीएजी से बिजली खरीदी की जांच होनी चाहिए। वहीं सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता राजेन्द्र अग्रवाल कहते हैं कि जब मामूली उपभोक्ता के बिजली चोरी से जुड़ी जांच करने लंबा-चौड़ा महकमा बना है तो फिर करोड़ों रुपए की बिजली खरीदी सही हो रही है, इसकी जांच क्यों नहीं होती? करोड़ों का घोटाला तो इसमें हो रहा है। इसकी भरपाई जनता से होती है। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता व प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल कहते हैं कि मध्यप्रदेश की अधिकतम मांग लगभग 11,000 मेगावाट है और औसत मांग 7000 मेगावाट है, फिर भी जरुरत से ज्यादा उत्पादन क्षमता में कई गैर जरुरी समझौतों को रद्द करके और अनावश्यक बिजली सरेंडर करके लगभग 3000 करोड़ रुपए की बचत की जा सकती है। आप संयोजक का कहना है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा पर 1100 करोड़ रुपए बकाया है, उसकी तत्काल वसूली की जानी चाहिए। अन्य राज्यों को बेचीं जाने वाली सरप्लस बिजली के दाम 3.16 रुपए/यूनिट से कम कर 2.50 रूपये प्रति यूनिट प्रस्तावित की गई है। आश्चर्य है कि प्रदेश के उपभोक्ता के दाम बढ़ाये जा रहे हैं और बाहरी राज्यों के लिए बिजली सस्ती की जा रही है। प्रदेश की बिजली सस्ती करने पर मांग बढऩे से यह सरप्लस बिजली प्रदेश में ही खप जाएगी।
निजी क्षेत्र से बिजली खरीदी के लिए खेल
मप्र देश का ऐसा अनोखा राज्य है, जो अपनी घरेलू जनता के लिए 24 घंटे बिजली आपूर्ति का दावा करता है। जाहिर है बिजली के उत्पादन का दबाव बना ही होगा, लेकिन वर्ष 2014-15 में ऐसा क्या हुआ कि कोयले से बिजली बनाने के जो पावर हाउस 80 फीसदी प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) की क्षमता रखते हों, उनकी हालत 49 जैसे विचलित करने वाले अंक पर आ गिरे, तो इसे क्या कहा जाए? दरअसल, यह निजी बिजली कंपनियों से महंगी दर पर बिजली खरीदने के लिए सुनियोजित तरीके से खेला गया खेल है। खासतौर पर जिन आला अधिकारियों पर इन बिजली घरों के प्रदर्शन का जिम्मा सौंपा गया था, वे कितने क्षमतावान रहे, सरकार इसकी समीक्षा न कर मौजूदा संकट के निदान को ही वरीयता देकर ध्यान हटाती आई है। आखिर क्या वजह है कि पड़ोसी राज्य के वैसे ही बिजली घर 80 फीसदी पीएफएल देते हैं और तो और एनटीपीसी का एक बिजली घर अपनी 25 वर्ष की अधिकतम आयु को पार कर 45 वर्षों तक 80 फीसदी या इससे अधिक की क्षमता प्रमाणित करता आया है।
आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन तथा छग में 640 ग्राम कोयले में एक यूनिट बिजली उत्पादन हो रहा है लेकिन मध्यप्रदेश में एक यूनिट में 780 से 800 ग्राम कोयला जलाया जा रहा है। संजय गांधी तापगृह में 55 सौ केलोरिफिक वेल्यू ऊष्मा का कोयला का इस्तेमाल हो रहा है, इससे सवा दो यूनिट बिजली बनना चाहिए, जबकि वर्तमान में सवा यूनिट बिजली का उत्पादन का हो रहा है, जो कि कम केलोरिफिक वेल्यू के कोयले से होता है। उपभोक्ता मंच ने यह मामला उठाते हुए कहा है कि यूज-कॉस्ट समायोजन के नाम पर कोयले का खर्च उपभोक्ता से वसूलने के पूर्व में सभी तथ्यों की जानकारी लेकर आयोग को अपनी अनुमति देना चाहिए। नागारिक उपभोक्ता मंच के डॉ. पीजी नाजपांडे ने आरोप लगाया है कि 1 जनवरी 2014 से बिजली को 29 पैसे करने की नियामक आयोग की अनुमति पर आपत्ति लगाते हुए कहा कि गुणवत्ता वाले 5500 केलोरिफिक वेल्यू के कोयले की कीमत 1450 प्रति टन तथा कम गुणवत्ता वाले 4 हजार केलोरिफिक वेल्यू के कोयले की कीमत 640 प्रति टन है। पिछले दो वर्षों में संजय गांधी तापगृह में 130 लाख टन कोयला कोल कंपनी से खरीदा गया, जिसका भुगतान 55 सौ केलोरिफिक वेल्यू के आधार पर किया गया। इस पूरी गड़बड़ी का अतिरिक्त खर्च हुआ, इसका बोझ उपभोक्ताओं पर डाला जा रहा है।
सीईआरसी के मापदण्डों का उल्लंघन: केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) देश भर के बिजली घरों के प्रदर्शन की नियामक संस्था है, ठीक वैसे ही जैसे मप्र विद्युत नियामक आयोग मप्र की। सीईआरसी ने कोयले से बिजली बनाने वाले ताप बिजली घरों की अधिकतम आयु 25 वर्ष निर्धारित करते हुए यह शर्त रखी है कि कम से कम इस अवधि तक ये बिजली घर 80 फीसदी पीएलएफ देने के लिए उत्तरदायी हैं। लेकिन इसके साथ-साथ इन पावर हाउसों का सालाना और मासिक मेंटेनेंस अनिवार्य है। मेंटेनेंस पर लापरवाही प्रदेश में विद्युत उत्पादन का जिम्मा मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी के जिम्मे है। उसी के जिम्मे इन बिजली घरों के रखरखाव की भी जिम्मेदारी है। पिछले दस वर्षों के दौरान यदि इस बिजली कंपनी के अधीन पावर हाउसों का प्रदर्शन देखें तो औसत रूप से यह कभी भी 80 फीसदी के आंकड़े तक नहीं पहुंचा। हां कुछ एक वर्षों में जरूर यह 70 या 72 फीसदी आंका गया। पिछले दो वर्षों में यह प्रदर्शन 60 फीसदी और फिर 64 फीसदी तक आंका गया। लेकिन वित्तीय वर्ष 2014-15 में 49 फीसदी के अपने सबसे निम्नतम स्तर पर पहुंचा तो सवाल उठने शुरू हो गए। आखिर बिजली घरों का प्रदर्शन इतना गया गुजरा था तो मेंटेनेंस किया गया या फिर बिजली पैदा करने के लिए ही पावर हाउसों को झोंका गया। सवाल कई तरह के उठ रहे हैं। बिजली कंपनी दबी जुबान से यह कहती आ रही है कि इनका सालाना मेंटेनेंस तो किया ही जाता है। यदि मेंटेनेंस करने के बाद भी परिणाम इतना गया-गुजरा रहना था तो पैसे कहां फूंक दिए गए। जब मप्र रबी सीजन जैसे पीक डिमांड की कालावधि में उठने वाली मांग जो इस वर्ष दस हजार मेगावाट आंकी जा रही है, के अनुपात से ज्यादा उत्पादन क्षमता रखता है, तो महंगी बिजली खरीदने की जरूरत क्यों पड़ती है? बिजली अधिकारियों पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह बिजली की उपलब्धता होने के बावजूद भी मोटे कमीशन के चक्कर में महंगी बिजली खरीदी के हालात पैदा करवाती है। 49 फीसदी का पीएलएफ ऐसे हालातों की पुष्टि करता है।
जब से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मप्र में 24 घंटे बिजली उपलब्ध कराने की घोषणा की है तब से मनमानी तरीके से बिजली खरीदने का गोरखधंधा शुरू हो गया है। लेंको अमरकंटक पावर कम्पनी से बिजली खरीदी के मामले में वर्ष 2012 से अब तक 4139 करोड़ रुपए के घोटाले का सनसनीखेज आरोप नागरिक उपभोक्ता मार्गदर्शक मंच के अध्यक्ष डॉ. पीजी नाजपाण्डे ने लगाया है। उन्होंने बताया कि बिजली खरीदी की दर 2.20 पैसे नियत हुई थी मगर विद्युत विभाग ने इसे 2.83 पैसे की दर से खरीदा है। इस प्रकार प्रति यूनिट 63 पैसे ज्यादा देकर 300 मेगावाट बिजली खरीदी जा रही है। डॉ. नाजपाण्डे ने बताया कि प्रदेश के ऊर्जा विभाग ने लेंको कंपनी को 14 फरवरी 2012 को ब्लैकलिस्टेड किया था क्योंकि कंपनी ने प्रदेश सरकार को बिजली देने का समझौता तोड़ा था।
इस कंपनी ने अन्य प्रदेश को बिजली बेची और 623 करोड़ रुपये की कमाई कर ली थी। इसके कुछ ही महीने बाद यानि 16 अक्टूबर 2012 को लेंको को ब्लैकलिस्टेड करने का आदेश वापस लेते हुए कंपनी से पूर्व निर्धारित रेट से 63 पैसे ज्यादा देकर आगामी 25 वर्षों तक बिजली खरीदने का समझौता किया। मंच ने चेतावनी दी है कि यदि कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जाती है तो वह हाईकोर्ट की शरण में जाएगा। उनका आरोप है कि बिजली खरीदी के इस अनुबंध को कराने में मप्र विद्युत नियामक आयोग के चेयरमैन राकेश साहनी की मुख्य भूमिका थी। मंच ने आरोप लगाया कि मप्र विद्युत नियामक आयोग द्वारा सात मार्च 2007 को 2.20 रुपए प्रति यूनिट दर निर्धारित की गई थी, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया। क्या लेंको ने इस रेट को स्वीकारा नहीं था। इस बाबद प्रदेश की बिजली कंपनियां चुप बैठी हैं। सच्चाई यह है कि अधिकारियों ने जान-बूझकर ऊंचे रेट स्वीकार किए हैं।
खरीदी का कोई हिसाब ही नहीं
बिजली कंपनी आप से हर यूनिट का दाम वसूलती है पर खुद की खरीदी का कोई हिसाब नहीं रखती। पावर प्लांट बिना किसी रीडिंग के बिल भेजते रहे। कंपनी करोड़ों रुपए चुकाती रही। यह देखने वाला कोई नहीं था कि प्लांट ने कितने मेगावॉट बिजली सप्लाई की। सबसे ज्यादा गड़बड़ी सोलर व विंड के पॉवर प्लांटों में सामने आई है। मामला खुलने पर स्टेट लोड डिस्पैच सेंटर (बिजली की उपलब्धता की निगरानी करने वाला विभाग) ने 37 पॉवर प्लांट का भुगतान रोक दिया। इन पॉवर प्लांटों में मीटर लगा ही नहीं था। कंपनी 200 पॉवर प्लांटों से बिजली खरीदती है। प्रदेश में बिजली की डिमांड के मुताबिक सप्लाई कहा कितनी देना है। इस काम को स्टेट लोड डिस्पैच सेंटर से मैनेज किया जाता है। पॉवर प्लांट से बिजली पैदा होकर सीधे ग्रिड के जरिए सप्लाई की जाती है। यहां से सब-स्टेशन के लिए अलग-अलग लाइनों पर बिजली दौड़ती है। प्लांट के अलावा लोड डिस्पैच सेंटर में मीटर लगा होता है जहां से पैदा होकर ली गई बिजली के आंकड़े एकत्र होते हैं। वाकई बिजली आंकड़े के हिसाब से मिली या नहीं इसकी जांच करने के लिए अलग से कोई विभाग नहीं है। सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता राजेन्द्र अग्रवाल ने इस मामले पर मप्र विद्युत नियामक आयोग के सामने मप्र पॉवर मैनेजमेंट कंपनी की हकीकत बयां की। हैरानी जताई कि करोड़ों रुपए की बिजली निजी प्लांट से खरीदी हो रही है लेकिन इसकी वाकई में ऐसा होता है कि नहीं इसकी जांच नहीं होती। आयोग ने भी इस अपत्ति को गंभीरता से सुना।
मीटर नहीं लगाया तो किया सस्पेंड
मप्र पॉवर मैनेजमेंट कंपनी ने 37 पॉवर प्लांट की एनर्जी अकाउंटिंग सस्पेंड कर दी है। जनवरी माह में ये कार्रवाई हुई। इन प्लांट से बिजली तो कंपनी ले रही है लेकिन कितनी, इसका कोई रिकार्ड नहीं बन रहा। सस्पेंशन से प्लांट को जनवरी से बिजली का भुगतान नहीं होगा। क्योंकि उनके आंकड़े नहीं जुटाए जा रहे हैं। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ऑफ इंडिया में पॉवर प्रोड्यूसर को टेली मीटरिंग लगाना अनिवार्य है। इससे बिजली खरीदी मेगावाट में दर्ज होती है। लोड डिस्पैच सेंटर में डाटा का रिकार्ड होता। इससे आसानी होती है। पिछले सालभर से सभी प्लांट को कई दफा मीटर लगाने को कहा गया। नहीं मानने पर कार्रवाई हुई। एसएलडीसी के मुख्य अभियंता पीआर वेंडे के मुताबिक पॉवर प्लांट पर बिजली की रीडिंग के लिए लगे मीटर से छेड़छाड़ संभव नहीं है। ये हाई एक्यूरेसी के पॉइंट 2 क्लास के मीटर होते है। मेन मीटर और चेक मीटर प्लांट और एसएलडीसी में लगा होता है।
कैग करे जांच, जनता पर बोझ
आपको जानकर हैरानी होगी कि विभाग के पास पूर्व खरीदी का हिसाब नहीं है और उसने वित्तीय वर्ष 2016-17 में 23 हजार 726 करोड़ रुपए की बिजली खरीदी की योजना तैयार कर ली है। इसमें1500 मेगावाट करीब सोलर और विंड से बिजली खरीदी का अभी करार है। सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता एके जैन कहते हैं कि बिजली खरीदी की निगरानी एक बड़ा इश्यू है। इसमें गड़बड़ी की पूरी संभावना है। चूंकि नुकसान की भरपाई टैरिफ बढ़ाकर कंपनी जनता से करती है इसलिए सीएजी से बिजली खरीदी की जांच होनी चाहिए। वहीं सेवानिवृत्त मुख्य अभियंता राजेन्द्र अग्रवाल कहते हैं कि जब मामूली उपभोक्ता के बिजली चोरी से जुड़ी जांच करने लंबा-चौड़ा महकमा बना है तो फिर करोड़ों रुपए की बिजली खरीदी सही हो रही है, इसकी जांच क्यों नहीं होती? करोड़ों का घोटाला तो इसमें हो रहा है। इसकी भरपाई जनता से होती है। आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता व प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल कहते हैं कि मध्यप्रदेश की अधिकतम मांग लगभग 11,000 मेगावाट है और औसत मांग 7000 मेगावाट है, फिर भी जरुरत से ज्यादा उत्पादन क्षमता में कई गैर जरुरी समझौतों को रद्द करके और अनावश्यक बिजली सरेंडर करके लगभग 3000 करोड़ रुपए की बचत की जा सकती है। आप संयोजक का कहना है कि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा पर 1100 करोड़ रुपए बकाया है, उसकी तत्काल वसूली की जानी चाहिए। अन्य राज्यों को बेचीं जाने वाली सरप्लस बिजली के दाम 3.16 रुपए/यूनिट से कम कर 2.50 रूपये प्रति यूनिट प्रस्तावित की गई है। आश्चर्य है कि प्रदेश के उपभोक्ता के दाम बढ़ाये जा रहे हैं और बाहरी राज्यों के लिए बिजली सस्ती की जा रही है। प्रदेश की बिजली सस्ती करने पर मांग बढऩे से यह सरप्लस बिजली प्रदेश में ही खप जाएगी।
निजी क्षेत्र से बिजली खरीदी के लिए खेल
मप्र देश का ऐसा अनोखा राज्य है, जो अपनी घरेलू जनता के लिए 24 घंटे बिजली आपूर्ति का दावा करता है। जाहिर है बिजली के उत्पादन का दबाव बना ही होगा, लेकिन वर्ष 2014-15 में ऐसा क्या हुआ कि कोयले से बिजली बनाने के जो पावर हाउस 80 फीसदी प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) की क्षमता रखते हों, उनकी हालत 49 जैसे विचलित करने वाले अंक पर आ गिरे, तो इसे क्या कहा जाए? दरअसल, यह निजी बिजली कंपनियों से महंगी दर पर बिजली खरीदने के लिए सुनियोजित तरीके से खेला गया खेल है। खासतौर पर जिन आला अधिकारियों पर इन बिजली घरों के प्रदर्शन का जिम्मा सौंपा गया था, वे कितने क्षमतावान रहे, सरकार इसकी समीक्षा न कर मौजूदा संकट के निदान को ही वरीयता देकर ध्यान हटाती आई है। आखिर क्या वजह है कि पड़ोसी राज्य के वैसे ही बिजली घर 80 फीसदी पीएफएल देते हैं और तो और एनटीपीसी का एक बिजली घर अपनी 25 वर्ष की अधिकतम आयु को पार कर 45 वर्षों तक 80 फीसदी या इससे अधिक की क्षमता प्रमाणित करता आया है।
आपको यह जानकर भी हैरानी होगी कि नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन तथा छग में 640 ग्राम कोयले में एक यूनिट बिजली उत्पादन हो रहा है लेकिन मध्यप्रदेश में एक यूनिट में 780 से 800 ग्राम कोयला जलाया जा रहा है। संजय गांधी तापगृह में 55 सौ केलोरिफिक वेल्यू ऊष्मा का कोयला का इस्तेमाल हो रहा है, इससे सवा दो यूनिट बिजली बनना चाहिए, जबकि वर्तमान में सवा यूनिट बिजली का उत्पादन का हो रहा है, जो कि कम केलोरिफिक वेल्यू के कोयले से होता है। उपभोक्ता मंच ने यह मामला उठाते हुए कहा है कि यूज-कॉस्ट समायोजन के नाम पर कोयले का खर्च उपभोक्ता से वसूलने के पूर्व में सभी तथ्यों की जानकारी लेकर आयोग को अपनी अनुमति देना चाहिए। नागारिक उपभोक्ता मंच के डॉ. पीजी नाजपांडे ने आरोप लगाया है कि 1 जनवरी 2014 से बिजली को 29 पैसे करने की नियामक आयोग की अनुमति पर आपत्ति लगाते हुए कहा कि गुणवत्ता वाले 5500 केलोरिफिक वेल्यू के कोयले की कीमत 1450 प्रति टन तथा कम गुणवत्ता वाले 4 हजार केलोरिफिक वेल्यू के कोयले की कीमत 640 प्रति टन है। पिछले दो वर्षों में संजय गांधी तापगृह में 130 लाख टन कोयला कोल कंपनी से खरीदा गया, जिसका भुगतान 55 सौ केलोरिफिक वेल्यू के आधार पर किया गया। इस पूरी गड़बड़ी का अतिरिक्त खर्च हुआ, इसका बोझ उपभोक्ताओं पर डाला जा रहा है।
सीईआरसी के मापदण्डों का उल्लंघन: केन्द्रीय विद्युत नियामक आयोग (सीईआरसी) देश भर के बिजली घरों के प्रदर्शन की नियामक संस्था है, ठीक वैसे ही जैसे मप्र विद्युत नियामक आयोग मप्र की। सीईआरसी ने कोयले से बिजली बनाने वाले ताप बिजली घरों की अधिकतम आयु 25 वर्ष निर्धारित करते हुए यह शर्त रखी है कि कम से कम इस अवधि तक ये बिजली घर 80 फीसदी पीएलएफ देने के लिए उत्तरदायी हैं। लेकिन इसके साथ-साथ इन पावर हाउसों का सालाना और मासिक मेंटेनेंस अनिवार्य है। मेंटेनेंस पर लापरवाही प्रदेश में विद्युत उत्पादन का जिम्मा मप्र पावर जनरेटिंग कंपनी के जिम्मे है। उसी के जिम्मे इन बिजली घरों के रखरखाव की भी जिम्मेदारी है। पिछले दस वर्षों के दौरान यदि इस बिजली कंपनी के अधीन पावर हाउसों का प्रदर्शन देखें तो औसत रूप से यह कभी भी 80 फीसदी के आंकड़े तक नहीं पहुंचा। हां कुछ एक वर्षों में जरूर यह 70 या 72 फीसदी आंका गया। पिछले दो वर्षों में यह प्रदर्शन 60 फीसदी और फिर 64 फीसदी तक आंका गया। लेकिन वित्तीय वर्ष 2014-15 में 49 फीसदी के अपने सबसे निम्नतम स्तर पर पहुंचा तो सवाल उठने शुरू हो गए। आखिर बिजली घरों का प्रदर्शन इतना गया गुजरा था तो मेंटेनेंस किया गया या फिर बिजली पैदा करने के लिए ही पावर हाउसों को झोंका गया। सवाल कई तरह के उठ रहे हैं। बिजली कंपनी दबी जुबान से यह कहती आ रही है कि इनका सालाना मेंटेनेंस तो किया ही जाता है। यदि मेंटेनेंस करने के बाद भी परिणाम इतना गया-गुजरा रहना था तो पैसे कहां फूंक दिए गए। जब मप्र रबी सीजन जैसे पीक डिमांड की कालावधि में उठने वाली मांग जो इस वर्ष दस हजार मेगावाट आंकी जा रही है, के अनुपात से ज्यादा उत्पादन क्षमता रखता है, तो महंगी बिजली खरीदने की जरूरत क्यों पड़ती है? बिजली अधिकारियों पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह बिजली की उपलब्धता होने के बावजूद भी मोटे कमीशन के चक्कर में महंगी बिजली खरीदी के हालात पैदा करवाती है। 49 फीसदी का पीएलएफ ऐसे हालातों की पुष्टि करता है।
पिछले दस वर्षों का पीएलएफ
वर्ष पीएलएफ प्रतिशत में
2005-06 68.20
2006-07 70.54
2007-08 68.91
2008-09 67.21
2009-10 62.86
2010-11 61.10
2011-12 61.38
2012-13 66.24
2013-14 60.00
2014-15 49.60
वर्ष पीएलएफ प्रतिशत में
2005-06 68.20
2006-07 70.54
2007-08 68.91
2008-09 67.21
2009-10 62.86
2010-11 61.10
2011-12 61.38
2012-13 66.24
2013-14 60.00
2014-15 49.60
अधिकारियों की क्षमता पर सवाल
जब पड़ोसी राज्यों के बिजली घर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हों तो मप्र के हालात पर उठने वाले सवालों की जिम्मेदारी क्यों तय नहीं की जाती। क्या 60 से 64 फीसदी पीएलएफ रहने की दशा में पावर हाउसों के प्रदर्शन को अधिकारियों की क्षमता से जोड़कर देखा गया। यदि देखा जाता तो शायद गिरावट के इस स्तर (49.6 फीसदी) तक की स्थिति कभी नहीं बनती। इस नाकामी पर पर्दा डालने की बहानेबाजी सिर चढ़कर बोलती आई है। लेकिन सजा या दण्ड के न अपनाने से ये हालात बेहद चौकाने वाली स्थिति बन गई है। बिजली उत्पादन की दक्षता में अप्रत्याशित गिरावट पर पर्दा डालने के लिए बहानेबाजी तैयार है। पहला तो जवाब यह तैयार है कि सतपुड़ा पावर हाउस की 62.5 मेगावाट की पांच यूनिटों को बंद किया गया, लेकिन इसका जवाब यह है कि इसी पावर हाउस में 250-250 मेगावाट की दो विद्युत यूनिट 18 अगस्त 2013 और 16 मार्च 2014 में लाइट अप हुई हैं। इस तरह यदि 312.5 मेगावाट की यूनिट बंद हुई तो 500 मेगावाट क्षमता की नई यूनिटों से उसी अवधि में विद्युत उत्पादन शुरू हो गया। जिस वित्त वर्ष में पीएलएफ 49.6 फीसदी के गिरावट पर दर्ज किया गया। नाकामी की दूसरी ढाल कोयले की उपलब्धता को लेकर है, जिसमें अक्सर यह शिकायत की जाती रही है कि उनके कोटे का कोयला न केवल काटकर बल्कि कम गुणवत्ता के साथ आपूर्ति की जाती है। लेकिन यह बहाना कैसे चलेगा, अन्य राज्यों में कोयले की आपूर्ति का यही तरीका है।
मप्र में बिजली बनाना महंगा और खरीदना सस्ता
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मध्यप्रदेश में खुद बिजली बनाकर (कैप्टिव पॉवर प्लांट) उपयोग करना मंहगा है और दूसरों से खरीदकर इस्तेमाल करना सस्ता है। यह हम नहीं बल्कि बिजली बनाकर उपयोग करने वाली कंपनियों के संचालकों का कहना है। उनका कहना है कि यदि सरकार चाहती है कि कंपनियां खुद बिजली बनाकर इस्तेमाल करें तो छूट देकर उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। उद्योगपतियों के अनुसार इलेक्ट्रिसिटी ड्यूटी एक्ट-2012 के तहत किसी कंपनी का कैप्टिव पावर प्लांट है तो उनसे 15 फीसदी ड्यूटी वसूली जा रही है, जबकि सरकार, बिजली बनाने वाली कंपनियों या दूसरे राज्य से बिजली खरीदने पर 9 फीसदी ड्यूटी लगाती है। ऐसे में स्वयं के निवेश पर बिजली प्लांट लगाने के बाद ज्यादा ड्यूटी देना न्याय संगत नहीं है। उद्योग जगत ने कैप्टिव पावर प्लांट पर लगने वाली डयूटी को 15 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करने की मांग की है। प्रदेश में लगभग 250 कैप्टिव पावर प्लांट हैं। वर्तमान में लगभग सभी सेक्टर की कंपनियां खुद की बिजली तैयार इसे इस्तेमाल करती हैं। कंपनी संचालकों का कहना है कि खुद की बिजली मंहगी होने के बाद भी ऐसा इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें दूसरे जगह से मिलने वाली बिजली से क्वालिटी पावर नहीं मिल पाता है। प्रदेश सरकार ने 25 अप्रैल 2012 से कैप्टिव विद्युत उत्पादन पर देय विद्युत शुल्क की दर 9 से बढ़ाकर 15 फीसदी किया है। सरकार का यह कदम विद्युत अधिनियम 2003 के विपरीत है, क्योंकि इसमें कैप्टिव पावर को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। चूंकि कैप्टिव पावर उत्पादक को जनरेटर व अन्य साधनों के लिए कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी होती है, इसलिए विद्युत शुल्क की दर अत्यंत कम होनी चाहिए। कैप्टिव पॉवर जनरेशन पर अधिक शुल्क मामले में प्रदेश के ऊर्जा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि शुल्क में राहत प्रदान करना वित्त विभाग का काम है। ऊर्जा विभाग तो नियामानुसार ही शुल्क ले रहा है। कैप्टिव पावर पर 15 फीसदी डयूटी वसूलने से उद्योगों को प्रति यूनिट 30 पैसे अतिरिक्त भुगतान करना पड़ रहा है। अन्य राज्यों की तुलना में यह सबसे अधिक है। महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक में तो कैप्टिव पावर पर कोई शुल्क ही नहीं लगता। वहीं केरल में 1.2 पैसे, तमिलनाडु में 10 और आंध्रप्रदेश में 25 पैसे प्रति यूनिट का शुल्क लगता है।
जब पड़ोसी राज्यों के बिजली घर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हों तो मप्र के हालात पर उठने वाले सवालों की जिम्मेदारी क्यों तय नहीं की जाती। क्या 60 से 64 फीसदी पीएलएफ रहने की दशा में पावर हाउसों के प्रदर्शन को अधिकारियों की क्षमता से जोड़कर देखा गया। यदि देखा जाता तो शायद गिरावट के इस स्तर (49.6 फीसदी) तक की स्थिति कभी नहीं बनती। इस नाकामी पर पर्दा डालने की बहानेबाजी सिर चढ़कर बोलती आई है। लेकिन सजा या दण्ड के न अपनाने से ये हालात बेहद चौकाने वाली स्थिति बन गई है। बिजली उत्पादन की दक्षता में अप्रत्याशित गिरावट पर पर्दा डालने के लिए बहानेबाजी तैयार है। पहला तो जवाब यह तैयार है कि सतपुड़ा पावर हाउस की 62.5 मेगावाट की पांच यूनिटों को बंद किया गया, लेकिन इसका जवाब यह है कि इसी पावर हाउस में 250-250 मेगावाट की दो विद्युत यूनिट 18 अगस्त 2013 और 16 मार्च 2014 में लाइट अप हुई हैं। इस तरह यदि 312.5 मेगावाट की यूनिट बंद हुई तो 500 मेगावाट क्षमता की नई यूनिटों से उसी अवधि में विद्युत उत्पादन शुरू हो गया। जिस वित्त वर्ष में पीएलएफ 49.6 फीसदी के गिरावट पर दर्ज किया गया। नाकामी की दूसरी ढाल कोयले की उपलब्धता को लेकर है, जिसमें अक्सर यह शिकायत की जाती रही है कि उनके कोटे का कोयला न केवल काटकर बल्कि कम गुणवत्ता के साथ आपूर्ति की जाती है। लेकिन यह बहाना कैसे चलेगा, अन्य राज्यों में कोयले की आपूर्ति का यही तरीका है।
मप्र में बिजली बनाना महंगा और खरीदना सस्ता
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि मध्यप्रदेश में खुद बिजली बनाकर (कैप्टिव पॉवर प्लांट) उपयोग करना मंहगा है और दूसरों से खरीदकर इस्तेमाल करना सस्ता है। यह हम नहीं बल्कि बिजली बनाकर उपयोग करने वाली कंपनियों के संचालकों का कहना है। उनका कहना है कि यदि सरकार चाहती है कि कंपनियां खुद बिजली बनाकर इस्तेमाल करें तो छूट देकर उन्हें प्रोत्साहित करना होगा। उद्योगपतियों के अनुसार इलेक्ट्रिसिटी ड्यूटी एक्ट-2012 के तहत किसी कंपनी का कैप्टिव पावर प्लांट है तो उनसे 15 फीसदी ड्यूटी वसूली जा रही है, जबकि सरकार, बिजली बनाने वाली कंपनियों या दूसरे राज्य से बिजली खरीदने पर 9 फीसदी ड्यूटी लगाती है। ऐसे में स्वयं के निवेश पर बिजली प्लांट लगाने के बाद ज्यादा ड्यूटी देना न्याय संगत नहीं है। उद्योग जगत ने कैप्टिव पावर प्लांट पर लगने वाली डयूटी को 15 फीसदी से घटाकर 7 फीसदी करने की मांग की है। प्रदेश में लगभग 250 कैप्टिव पावर प्लांट हैं। वर्तमान में लगभग सभी सेक्टर की कंपनियां खुद की बिजली तैयार इसे इस्तेमाल करती हैं। कंपनी संचालकों का कहना है कि खुद की बिजली मंहगी होने के बाद भी ऐसा इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि हमें दूसरे जगह से मिलने वाली बिजली से क्वालिटी पावर नहीं मिल पाता है। प्रदेश सरकार ने 25 अप्रैल 2012 से कैप्टिव विद्युत उत्पादन पर देय विद्युत शुल्क की दर 9 से बढ़ाकर 15 फीसदी किया है। सरकार का यह कदम विद्युत अधिनियम 2003 के विपरीत है, क्योंकि इसमें कैप्टिव पावर को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। चूंकि कैप्टिव पावर उत्पादक को जनरेटर व अन्य साधनों के लिए कार्यशील पूंजी की व्यवस्था करनी होती है, इसलिए विद्युत शुल्क की दर अत्यंत कम होनी चाहिए। कैप्टिव पॉवर जनरेशन पर अधिक शुल्क मामले में प्रदेश के ऊर्जा विभाग के अधिकारियों का कहना है कि शुल्क में राहत प्रदान करना वित्त विभाग का काम है। ऊर्जा विभाग तो नियामानुसार ही शुल्क ले रहा है। कैप्टिव पावर पर 15 फीसदी डयूटी वसूलने से उद्योगों को प्रति यूनिट 30 पैसे अतिरिक्त भुगतान करना पड़ रहा है। अन्य राज्यों की तुलना में यह सबसे अधिक है। महाराष्ट्र, राजस्थान और कर्नाटक में तो कैप्टिव पावर पर कोई शुल्क ही नहीं लगता। वहीं केरल में 1.2 पैसे, तमिलनाडु में 10 और आंध्रप्रदेश में 25 पैसे प्रति यूनिट का शुल्क लगता है।
सात हजार करोड़ रुपए का घोटाला सामने आया.....
भोपाल । मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पुनर्घत्वीकरण (रीडेेंसीफिकेशन) योजना के तहत 15 एकड़ जमीन के आवंटन में लगभग सात हजार करोड़ रुपए का घोटाला सामने आया है। सरकार ने इस जमीन को लीज होल्ड की बजाय फिर से फ्री होल्ड कर दिया है। राजधानी के प्रमुख क्षेत्र तात्या टोपे नगर में लगभग 15 एकड़ जमीन राज्य सरकार ने पुनर्घत्वीकरण योजना के तह गैमन इंडिया कोआवंटित की थी। इस योजना के लिए कुल 29 कंपनियों ने बोली लगाई थी, इनमें से 17 कंपनियों को परियोजना के योग्य पाया गया था, मगद बाजी गैमन इंडिया ने मारी। सरकार और गैमन इंडिया के बीच 29 नवंबर 2007 को अनुबंध हुआ है और इस अनुबंध के आधार पर गैमन इंडिया ने 338 करोड़ रुपए प्रीमियम के तौर पर देने का वादा किया। इसी बीच गैमन इंडिया ने 17 अप्रैल 2008 को गृह निर्माण मंडल के आयुक्त को पत्र लिखकर दीपमाला इंफ्रास्टक्चर प्राइवेट लिमिटेड को अपनी विशेष कार्य उद्देश्य कंपनी के तौर पर बताया।
सरकार पर लगते रहे आरोप
योजना कंपनी हाथ में आने के बाद से सरकार पर आरोप लगाते रहे क्योंकि सरकार ने इस जमीन को लीज होल्ड से जून 212 को फ्री होल्ड कर दिया था। मामले ने तूल पकड़ा और उच्च न्यायालय तक पहुंचा तो सरकार ने अपने फैसले को नवंबर 2012 में वापस ले लिया।
प्रकाश ने किया उजागर
सूचना के अधिकार कार्यकर्ता देवेंद्र प्रकाश मिश्रा ने प्रभावित दस्तावेज हासिल किया जिसके मुताबिक सरकार ने एक बार फिर इसी जमीन को जुलाई 2015 में फ्री होल्ड कर दिया है। जमीन को फ्री होल्ड किए जाने का आदेश अपर आयुक्त एनपी डेहरिया के हस्ताक्षर से जारी किया गया है। डेहरिया ने पूर्व में जमीन को फ्री होल्ड से लीज होल्ड करने के फैसले को निरस्त करते हुए जमीन को फ्री होल्ड कर दिया है।
सब कुछ नियम विरूद्ध
इस तरह सिर्फ लीज रेंट से ही साठ साल में 5200 करोड़ मिलते और लोर एरिया रेशियो सहित अन्य राशि को जोड़ा जाए तो वह सात हजार करोड़ रुपए के आसपास बैठती है। प्रदेश सरकार का अनुबंध गैमन इंडिया से हुआ था, मगर गैमन इंडिया ने एक नई कंपनी दीपमाला इंफ्रास्टक्चर प्राइवेट लिमिटेड मुंबई में पंजीकृत कराकर उसे विशेष कार्य उद्देश्य कंपनी बताकर काम सौंप दिया। यह सब नियम विरुद्ध हुआ है।
सरकार पर लगते रहे आरोप
योजना कंपनी हाथ में आने के बाद से सरकार पर आरोप लगाते रहे क्योंकि सरकार ने इस जमीन को लीज होल्ड से जून 212 को फ्री होल्ड कर दिया था। मामले ने तूल पकड़ा और उच्च न्यायालय तक पहुंचा तो सरकार ने अपने फैसले को नवंबर 2012 में वापस ले लिया।
प्रकाश ने किया उजागर
सूचना के अधिकार कार्यकर्ता देवेंद्र प्रकाश मिश्रा ने प्रभावित दस्तावेज हासिल किया जिसके मुताबिक सरकार ने एक बार फिर इसी जमीन को जुलाई 2015 में फ्री होल्ड कर दिया है। जमीन को फ्री होल्ड किए जाने का आदेश अपर आयुक्त एनपी डेहरिया के हस्ताक्षर से जारी किया गया है। डेहरिया ने पूर्व में जमीन को फ्री होल्ड से लीज होल्ड करने के फैसले को निरस्त करते हुए जमीन को फ्री होल्ड कर दिया है।
सब कुछ नियम विरूद्ध
इस तरह सिर्फ लीज रेंट से ही साठ साल में 5200 करोड़ मिलते और लोर एरिया रेशियो सहित अन्य राशि को जोड़ा जाए तो वह सात हजार करोड़ रुपए के आसपास बैठती है। प्रदेश सरकार का अनुबंध गैमन इंडिया से हुआ था, मगर गैमन इंडिया ने एक नई कंपनी दीपमाला इंफ्रास्टक्चर प्राइवेट लिमिटेड मुंबई में पंजीकृत कराकर उसे विशेष कार्य उद्देश्य कंपनी बताकर काम सौंप दिया। यह सब नियम विरुद्ध हुआ है।
नहीं बिकी सवा सौ शराब की दुकानें, अब कर्मचारी बेचेंगे
आबकारी विभाग द्वारा घोषित की गई नई नीति शराब व्यवसाईयों को रास नहीं आयी, लिहाजा सरकार को ठेकेदार नहीं मिल रहे हैं। हालात यह है कि तमाम प्रयासों के बाद भी लगभग सवा सौ दुकानों के ठेके नहीं हो पाए। अब इन दुकानों पर शराब बेचने का जिमा विभागीय अमला उठाएगा। इतना ही नहीं विभाग को लगभग एक हजार करोड़ के राजस्व का नुकसान होना भी तय हो गया है।
प्रदेश में इस बार शराब के ठेकों के मामले में सरकार को भारी चपत लगी है। सरकार पिछले वर्ष की तरह इस बार भी शराब ठेकों से अच्छा राजस्व जुटाने का सपना देख रही थी, किन्तु इसके परिणाम उल्टे ही आए। ठेकेदारों ने रुचि नहीं दिखाई, तो सरकार ने उन्हें कई तरह के प्रलोभन दिए, किन्तु कोई भी करोबारी सामने नहीं आया, जिससे पूरे प्रदेश की 125 दुकानें बिना ठेके के रह गई हैं। जानकारों की मानें तो कम कीमत में ठेके उठाने एवं 125 दुकानों के लिए कोई कारोबारी नहीं मिलने से सरकार को आबकारी कर के रूप में पिछले साल से तकरीबन एक हजार करोड़ से कम की कमाई होने की संभावना है। गौरतलब है कि दो बरस पहले तक शराब के ठेके मौजूदा कीमत पर पंद्रह प्रतिशत बढ़ा कर उन्हीं ठेकेदारों को दे दिए जाते थे, लेकिन पिछले साल सरकार ने नए टेंडर की प्रक्रिया को अपनाया और उसे 2014-15 की तुलना में 2015-16 में 35 फीसदी ज्यादा आय हुई। इसी तरह 2015-16 में शराब ठेकों से सरकार को तकरीबन 6 हजार 800 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ लेकिन इस साल मामला उल्टा पड़ गया। सरकार के अफसर दबी जबान मान रहे हैं कि पूरे ठेके होने के बाद भी कमाई का आंकड़ा ६ हजार करोड़ को नहीं छू पाएगा। कई जगहों पर शराब ठेकों के टेंडर में ठेकेदारों ने अपेक्षित मूल्य से कम की बोली लगाई, तो कई जगहों पर ठेका ही नहीं हुआ। प्रदेश में 125 दुकानों ऐसी हैं जिन्हें कोाई ठेकेदार नहीं मिल सका है और खुद आबकारी विभाग अपने कर्मचारियों के जरिए ये दुकानें चला रहा है। शराब को लेकर सरकार अब कोई नई नीति बनाने में जुट गई है… ताकि अगले साल उसे मुंह की ना खानी पड़े और सरकारी खजाने में आबकारी कर से अच्छी खासी आय हो सके।
इनका कहना है
इस बार अपेक्षा के अनुरुप शराब की दुकानों के ठेके नहीं हुये। १२५ दुकानें लेने के लिए कोई भी आगे नहीं आया, ऐसे में इन दुकानों को विभाग की संचालित करेंगी। पिछले वर्ष की तुलना में इस बार लगभग एक हजार करोड़ का आबकारी कर कम मिलने की संभावना है।
जयंत मलैया, वित्त एवं आबकारी मंत्री, मप्र
प्रदेश में इस बार शराब के ठेकों के मामले में सरकार को भारी चपत लगी है। सरकार पिछले वर्ष की तरह इस बार भी शराब ठेकों से अच्छा राजस्व जुटाने का सपना देख रही थी, किन्तु इसके परिणाम उल्टे ही आए। ठेकेदारों ने रुचि नहीं दिखाई, तो सरकार ने उन्हें कई तरह के प्रलोभन दिए, किन्तु कोई भी करोबारी सामने नहीं आया, जिससे पूरे प्रदेश की 125 दुकानें बिना ठेके के रह गई हैं। जानकारों की मानें तो कम कीमत में ठेके उठाने एवं 125 दुकानों के लिए कोई कारोबारी नहीं मिलने से सरकार को आबकारी कर के रूप में पिछले साल से तकरीबन एक हजार करोड़ से कम की कमाई होने की संभावना है। गौरतलब है कि दो बरस पहले तक शराब के ठेके मौजूदा कीमत पर पंद्रह प्रतिशत बढ़ा कर उन्हीं ठेकेदारों को दे दिए जाते थे, लेकिन पिछले साल सरकार ने नए टेंडर की प्रक्रिया को अपनाया और उसे 2014-15 की तुलना में 2015-16 में 35 फीसदी ज्यादा आय हुई। इसी तरह 2015-16 में शराब ठेकों से सरकार को तकरीबन 6 हजार 800 करोड़ का राजस्व प्राप्त हुआ लेकिन इस साल मामला उल्टा पड़ गया। सरकार के अफसर दबी जबान मान रहे हैं कि पूरे ठेके होने के बाद भी कमाई का आंकड़ा ६ हजार करोड़ को नहीं छू पाएगा। कई जगहों पर शराब ठेकों के टेंडर में ठेकेदारों ने अपेक्षित मूल्य से कम की बोली लगाई, तो कई जगहों पर ठेका ही नहीं हुआ। प्रदेश में 125 दुकानों ऐसी हैं जिन्हें कोाई ठेकेदार नहीं मिल सका है और खुद आबकारी विभाग अपने कर्मचारियों के जरिए ये दुकानें चला रहा है। शराब को लेकर सरकार अब कोई नई नीति बनाने में जुट गई है… ताकि अगले साल उसे मुंह की ना खानी पड़े और सरकारी खजाने में आबकारी कर से अच्छी खासी आय हो सके।
इनका कहना है
इस बार अपेक्षा के अनुरुप शराब की दुकानों के ठेके नहीं हुये। १२५ दुकानें लेने के लिए कोई भी आगे नहीं आया, ऐसे में इन दुकानों को विभाग की संचालित करेंगी। पिछले वर्ष की तुलना में इस बार लगभग एक हजार करोड़ का आबकारी कर कम मिलने की संभावना है।
जयंत मलैया, वित्त एवं आबकारी मंत्री, मप्र
आवास गारंटी कानून बनाने वाला पहला राज्य
प्रदेश सरकार जल्द ही देश में आवास गारंटी कानून बनाने वाला पहला राज्य बनने वाला है। इसके लिए तैयार किए गए प्रस्ताव को कैबिनेट बैठक में मंजूरी मिल सकती है। यह कानून बनने के बाद आवासहीनों को मकान या प्लाट दिया जाएगा। इस कानून के लिए तैयार किए गए मसौदे को मुख्य सचिव अंटोनी डिसा की अध्यक्षता वाली वरिष्ठ सचिवों की समिति से मंजूरी मिल चुकी है।
दरअसल विधानसभा का बजट सत्र समाप्त हो चुका है और कानून के जल्द अमल के लिए अध्यादेश लाना होगा या फिर जुलाई-अगस्त में होने वाले मानसून सत्र तक इंतजार करना होगा। प्रस्तावित कानून के तहत इंदौर और भोपाल में 450 वर्गफीट और बाकी जगह 600 वर्गफीट के मकान या प्लाट दिए जाएंगे। गौरतलब है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने 2022 तक साी आवासहीनों को आवास देने की घोषणा की है। इसके मद्देनजर सभी राज्य सरकारों योजनाएं बना रही हैं, पर मप्र ने सबसे पहले मध्यप्रदेश आवास गारंटी कानून बना लिया है।
अंतिम रूप से विचार नहीं हो सका
वर्ष 2012 तक केंद्र और राज्य सरकार की आवासीय योजनाओं के तहत मकान दिए जाएंगे। मकान की पात्रता सिर्फ मध्यप्रदेश के मूलनिवासियों को होगी। कानून बनाने के लिए गठित प्रमुख सचिव नगरीय विकास की अध्यक्षता वाली कमेटी ने इसके मसौदे को अंतिम रूप देकर बजट सत्र में विधेयक लाने की तैयारी कर ली थी। मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली वरिष्ठ सचिव समिति ने विधेयक के प्रारूप का अनुमोदन भी कर दिया था पर कैबिनेट सब कमेटी में अंतिम रूप से विचार नहीं हो सका। नगरीय विकास विभाग ने मंगलवार को इसके लिए बैठक बुलाई थी लेकिन प्रमुख सचिव को मुख्यमंत्री के निर्देश पर हाल ही में उज्जैन जाने से बैठक स्थगित हो गई थी।
सब कमेटी में होगा मंथन
प्रदेश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आवासहीन परिवारों की संख्या सवा लाख के करीब है। इसमें भी लगभ 65 हजार परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में झोपड़े या अन्य किसी व्यवस्था से रह रहे हैं। पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने कच्चे आवासधारियों को भी आवासहीन की सूची में शामिल करने का प्रस्ताव दिया है। कैबिनेट सब कमेटी में इस पर भी विचार किया जाएगा।
दरअसल विधानसभा का बजट सत्र समाप्त हो चुका है और कानून के जल्द अमल के लिए अध्यादेश लाना होगा या फिर जुलाई-अगस्त में होने वाले मानसून सत्र तक इंतजार करना होगा। प्रस्तावित कानून के तहत इंदौर और भोपाल में 450 वर्गफीट और बाकी जगह 600 वर्गफीट के मकान या प्लाट दिए जाएंगे। गौरतलब है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने 2022 तक साी आवासहीनों को आवास देने की घोषणा की है। इसके मद्देनजर सभी राज्य सरकारों योजनाएं बना रही हैं, पर मप्र ने सबसे पहले मध्यप्रदेश आवास गारंटी कानून बना लिया है।
अंतिम रूप से विचार नहीं हो सका
वर्ष 2012 तक केंद्र और राज्य सरकार की आवासीय योजनाओं के तहत मकान दिए जाएंगे। मकान की पात्रता सिर्फ मध्यप्रदेश के मूलनिवासियों को होगी। कानून बनाने के लिए गठित प्रमुख सचिव नगरीय विकास की अध्यक्षता वाली कमेटी ने इसके मसौदे को अंतिम रूप देकर बजट सत्र में विधेयक लाने की तैयारी कर ली थी। मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली वरिष्ठ सचिव समिति ने विधेयक के प्रारूप का अनुमोदन भी कर दिया था पर कैबिनेट सब कमेटी में अंतिम रूप से विचार नहीं हो सका। नगरीय विकास विभाग ने मंगलवार को इसके लिए बैठक बुलाई थी लेकिन प्रमुख सचिव को मुख्यमंत्री के निर्देश पर हाल ही में उज्जैन जाने से बैठक स्थगित हो गई थी।
सब कमेटी में होगा मंथन
प्रदेश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में आवासहीन परिवारों की संख्या सवा लाख के करीब है। इसमें भी लगभ 65 हजार परिवार ग्रामीण क्षेत्रों में झोपड़े या अन्य किसी व्यवस्था से रह रहे हैं। पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने कच्चे आवासधारियों को भी आवासहीन की सूची में शामिल करने का प्रस्ताव दिया है। कैबिनेट सब कमेटी में इस पर भी विचार किया जाएगा।
डेढ़ दर्जन अफसर ऐसे हैं जिन्हें कांग्रेस व भाजपा की सरकारें भोपाल से बाहर पदस्थ
करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई
सहकारिता विभाग के करीब डेढ़ दर्जन अफसर ऐसे हैं जिन्हें कांग्रेस व भाजपा की सरकारें भोपाल से बाहर पदस्थ करने की हिम्मत नहीं दिखा पाई। इनमें अधिकांश अफसरों की भोपाल में पदस्थापना को दो-दो दशक हो चुके हैं। वे पदोन्नति के बाद भी यहीं जमे हुए हैं। यह अफसर अब तक की नौकरी में कभी मैदानी क्षेत्र में पदस्थ नहीं रहे, लेकिन मैदानी कार्य में पदस्थ अफसरों की फाइलों में काट-छांट कर रहे हैं। मप्र शासन का नियम है कि महकमे के अफसरों को तीन साल के बाद नए स्थान पर पदस्थ किया जाए, किंतु विभाग में करीब 16 अधिकारी ऐसे हैं, जो कुछ अपवादों को छोड़ अपनी 20 से ३0 साल तक की सेवाएं भोपाल में ही पूरी कर चुके हैं। इनकी पदस्थापनाएं वनोपज संघ भोपाल, अपेस बैंक मुख्यालय, सचिवालय (वल्लभ भवन), मुख्यालय (विंध्याचल भवन) या फिर मंत्रियों-अधिकारियों के ओएसडी के रूप में रही हैं। इनमें भी अधिकतर अफसर वर्षों से मुख्यालय में पदस्थ हैं।
पद से ज्यादा पदस्थ: सहकारिता विभाग के मुख्यालय में कई उपपंजीयक (डीआर) सरप्लस स्थिति में हैं। सीपीएस भदौरिया, आरके विश्वकर्मा, यतीश त्रिपाठी शामिल हैं। विश्वकर्मा- भोपाल जिले में पदस्थ थे, त्रिपाठी- वनोपज संघ और भदौरिया गुना से स्थानांतरण कर मुख्यालय आए हैं। अखिलेश निगम को छतरपुर से मुख्यालय अटैच किया था, किंतु वे कोर्ट से स्टे लेकर फिलहाल छतरपुर में पदस्थ हैं। संयुक्त पंजीयक (न्यायिक) भोपाल ब्रजेश शरण शुला और संयुक्त पंजीयक (न्यायिक) ग्वालियर मीरा असवाल को मुख्यालय में अटैच है। इनका वेतन संबंधित कार्यालयों से निकल रहा है। मीरा असवाल 2012 से अटैच हैं।
इन कारणों से बने ऐसे हालात
– कुछ अफसरों को मैदानी क्षेत्र में सिर्फ इसलिए पदस्थापना नहीं दी गई, चूंकि वे महिलाएं हैं।
– ईमानदार अफसरों को सक्षम अधिकारियों द्वारा तरजीह न देना।
– येन-केन सिफारिश लगाकर कुछ उप-पंजीयक एवं संयुत पंजीयक प्रमोशन लेते रहे।
कौन अधिकारी कहां पदस्थ
– बीएस शुक्ला (जेआर): मुख्यालय ( सचिवालय से आयुक्त कार्यालय), दो प्रमोशन
– गीता झा दिसोरिया (जेआर): मुख्यालय (वनोपज संघ, मुख्यालय, मुख्यालय में न्यायिक
– रविकांता दुबे (जेआर): टे्रनिंग कॉलेज, अपेक्स बैंक (वनोपज संघ, अपेक्स बैंक मुख्यालय)- दो प्रमोशन
– अरुणा दुबे (डीआर): वनोपज संघ (मुख्यालय में रहीं) एक प्रमोशन
– कृति सक्सेना (डीआर): मुख्यालय (ऑडिट एवं मुख्यालय)
– संजयमोहन भटनागर (डीआर): मुख्यालय (आईटी एक्सपर्ट, 20 साल मुख्यालय में)
– यतीश त्रिपाठी (डीआर): मुख्यालय (वनोपज संघ, बीज संघ में रहे)
– मनोज सिन्हा (डीआर): अपर सचिव, सचिवालय (10 साल से सचिवालय में, उसके पहले मुख्यालय)
– सुरभि वाष्र्णेय (डीआर): मुख्यालय (88 बैच की अधिकारी हैं,कंज्यूमर फेडरेशन, डिप्टी रजिस्ट्रार, महानगर पालिका दिल्ली में रहीं)
– गिरीश ताहड़े (जेआर): सदस्य मप्र राज्य अधिकरण, भोपाल (5 साल से अधिकरण में, आईसीडीपी में जनरल मैनेजर रहे, कभी जेआर, एआर, डीआर न्यायिक नहीं रहे)
– अरुण माथुर (एडीआर ): ओएसडी, विपणन संघ भोपाल (कई मंत्रियों एवं रजिस्ट्रार के ओएसडी रहे)
– मीरा असवाल (जेआर): मुख्यालय (10 साल से मुख्यालय में, आरईसी जबलपुर में डेपुटेशन पर रहीं)
– रितुराज रंजन (डीआर): मुख्यालय (आईसीडीपी, शहरी विकास मंत्रालय-डूडा जैसे प्रोजेट में भोपाल में रहे)
– विमल श्रीवास्तव (डीआर): मुख्यालय (अधिकरण में रजिस्ट्रार रहे)
– संजय मोर्य (डीआर): वनोपज संघ (इससे पूर्व मुख्यालय में रहे)
– संजय सिंह आर्य (एआर): मुख्यालय (2011 की भर्ती में आए)
– छविकांत वाघमारे (एआर): मुख्यालय (2011 की भर्ती में आए
पद से ज्यादा पदस्थ: सहकारिता विभाग के मुख्यालय में कई उपपंजीयक (डीआर) सरप्लस स्थिति में हैं। सीपीएस भदौरिया, आरके विश्वकर्मा, यतीश त्रिपाठी शामिल हैं। विश्वकर्मा- भोपाल जिले में पदस्थ थे, त्रिपाठी- वनोपज संघ और भदौरिया गुना से स्थानांतरण कर मुख्यालय आए हैं। अखिलेश निगम को छतरपुर से मुख्यालय अटैच किया था, किंतु वे कोर्ट से स्टे लेकर फिलहाल छतरपुर में पदस्थ हैं। संयुक्त पंजीयक (न्यायिक) भोपाल ब्रजेश शरण शुला और संयुक्त पंजीयक (न्यायिक) ग्वालियर मीरा असवाल को मुख्यालय में अटैच है। इनका वेतन संबंधित कार्यालयों से निकल रहा है। मीरा असवाल 2012 से अटैच हैं।
इन कारणों से बने ऐसे हालात
– कुछ अफसरों को मैदानी क्षेत्र में सिर्फ इसलिए पदस्थापना नहीं दी गई, चूंकि वे महिलाएं हैं।
– ईमानदार अफसरों को सक्षम अधिकारियों द्वारा तरजीह न देना।
– येन-केन सिफारिश लगाकर कुछ उप-पंजीयक एवं संयुत पंजीयक प्रमोशन लेते रहे।
कौन अधिकारी कहां पदस्थ
– बीएस शुक्ला (जेआर): मुख्यालय ( सचिवालय से आयुक्त कार्यालय), दो प्रमोशन
– गीता झा दिसोरिया (जेआर): मुख्यालय (वनोपज संघ, मुख्यालय, मुख्यालय में न्यायिक
– रविकांता दुबे (जेआर): टे्रनिंग कॉलेज, अपेक्स बैंक (वनोपज संघ, अपेक्स बैंक मुख्यालय)- दो प्रमोशन
– अरुणा दुबे (डीआर): वनोपज संघ (मुख्यालय में रहीं) एक प्रमोशन
– कृति सक्सेना (डीआर): मुख्यालय (ऑडिट एवं मुख्यालय)
– संजयमोहन भटनागर (डीआर): मुख्यालय (आईटी एक्सपर्ट, 20 साल मुख्यालय में)
– यतीश त्रिपाठी (डीआर): मुख्यालय (वनोपज संघ, बीज संघ में रहे)
– मनोज सिन्हा (डीआर): अपर सचिव, सचिवालय (10 साल से सचिवालय में, उसके पहले मुख्यालय)
– सुरभि वाष्र्णेय (डीआर): मुख्यालय (88 बैच की अधिकारी हैं,कंज्यूमर फेडरेशन, डिप्टी रजिस्ट्रार, महानगर पालिका दिल्ली में रहीं)
– गिरीश ताहड़े (जेआर): सदस्य मप्र राज्य अधिकरण, भोपाल (5 साल से अधिकरण में, आईसीडीपी में जनरल मैनेजर रहे, कभी जेआर, एआर, डीआर न्यायिक नहीं रहे)
– अरुण माथुर (एडीआर ): ओएसडी, विपणन संघ भोपाल (कई मंत्रियों एवं रजिस्ट्रार के ओएसडी रहे)
– मीरा असवाल (जेआर): मुख्यालय (10 साल से मुख्यालय में, आरईसी जबलपुर में डेपुटेशन पर रहीं)
– रितुराज रंजन (डीआर): मुख्यालय (आईसीडीपी, शहरी विकास मंत्रालय-डूडा जैसे प्रोजेट में भोपाल में रहे)
– विमल श्रीवास्तव (डीआर): मुख्यालय (अधिकरण में रजिस्ट्रार रहे)
– संजय मोर्य (डीआर): वनोपज संघ (इससे पूर्व मुख्यालय में रहे)
– संजय सिंह आर्य (एआर): मुख्यालय (2011 की भर्ती में आए)
– छविकांत वाघमारे (एआर): मुख्यालय (2011 की भर्ती में आए
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