आम आदमी का सच...


अगर सरकार की कोई योजना से लाखों-करोड़ों लोगों का भला हो रहा हो तो क्‍या उसे सिर्फ इसलिए रोक दिया जाना चाहिए कि भारत के किसी एक राज्य में चुनाव होने जा रहे हैं?केंद्र सरकार अगर आम चुनाव के वक्‍त ऐसा कुछ करती है तो भी माना जा सकता है कि अपने फायदे के लिए कर रही है, पर भारत में दो दर्जन से ज्यादा राज्य हैं और हर समय कहीं न कहीं चुनाव चल ही रहे होते हैं तो क्‍या आम आदमी की परेशानी को हमेशा के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया जाए? या फिर चुनाव आयोग से पूछा जाए कि कब योजना की शुरुआत कर सकते हैं! नकदी हस्तांतरण योजना अर्थात नकद सब्‍सडी से यदि कई राज्यों के लोगों का भला हो रहा है और इस योजना से विपक्षी दलों के पेट में मरोड़ें उठ रही हैं तो क्‍या इसे फिर रोक दिया जाना चाहिए? सरकारी काम के अपने तरीके होते हैं और तमाम औपचारिकताओं के मेरू पर्वत लांघते हुए ही किसी योजना को अमलीजामा पहनाया जा सकता है। कोई भी योजना एक दिन में ना तो तैयार होती है और ना ही लागू ही की जा सकती है... तो फिर पार्टी को कहीं फायदा न हो जाए, इस चक्‍कर में आम आदमी को लाभ से दूर करना क्‍या गलत नहीं है?
भाजपा के ही नेता यह कहते पाए गए हैं कि इस योजना का ख्याल हमें पहले क्‍यों नहीं आया! तो क्‍या सिर्फ इसलिए इस योजना का विरोध किया जा रहा है कि आम आदमी के फायदे से सरकारी दल को भी फायदा हो जाएगा? वैसे चुनाव आयोग यह फैसला पहले भी कर सकता था कि नकद सब्‍सडी कानून गुजरात और हिमाचल प्रदेश (वहां तो वोट पड़ चुके हैं और नतीजे आने वाले हैं) में फिलहाल लागू नहीं किया जाए। वैसे भी सरकार ने अपने जवाब में कहा है कि यह कानून अगले साल जनवरी से लागू किया जाना है। चुनाव आयोग को यह भी समझना चाहिए कि इस देश का गरीब वोटर इतना भी गया-गुजरा नहीं है कि कुछ सौ रुपए के लिए अपना वोट बेच आएगा। वोटर और पैसे को बिल्ली और दूध की तरह नहीं लिया जाना चाहिए। अपनी ईमानदारी दिखाने के लिए चुनाव आयोग को यह हक नहीं मिल जाता है कि वह आम आदमी की नैतिकता पर शक करे!

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