नदी बहती रहे...

तालाब और नदी का फर्क समझना जरूरी है। शिवराजसिंह नर्मदा को इतने हिस्सों में बांट रहे हैं कि वह कुंड होकर रह जाएगी।
मध्यप्रदेश सरकार अठारह हजार करोड़ के भारी खर्च से मालवा की नदियों को नर्मदा से जोड़ने का काम शुरू कर चुकी है। अव्वल तो चिंता नर्मदा की ही होनी चाहिए कि बिजली के लिए बांधों के बनने से रुका बहना, जमती गाद और तेजी से नदी की कम होती रेत उसे धीरे-धीरे मौत की तरफ ले जा रही है। बाकी कमी पानी में मिलती किनारे के गांवों और शहरों की गंदगी पूरी कर रही है। चिंता पहले नर्मदा की होनी चाहिए कि वो प्रदेश की इकलौती जिंदा नदी है, उसकी बजाय शिप्रा और बाकी नदियों की हो रही है। नर्मदा चुनावी हथियार में तब्‍दील हो चुकी है, इस कारण उसके जिंदा रहने के बजाय उसके उपयोग और वोट पाने की राजनीति जोरों पर है।
भोपाल से लेकर मंदसौर और नीमच तक नर्मदा का पानी पहुंचाने का शोर शुरू हो चुका है। हजारों गांवों में नर्मदा का पानी देने के वादे हो चुके हैं। आखिर नदी ये सब कब तक सहन कर पाएगी? उसके किनारे के जंगल साफ किए जा चुके हैं, रेत निकाली जा रही है पूरी बेरहमी से, तो क्‍या नदी खुद जी पाएगी, जो बाकी नदियों को जिंदा करने का सपना दिखाया जा रहा है। उड्डार भारत की नदियों में पानी के लगातार आने का कारण हिम ग्लेशियर का पिघलना है और नर्मदा तो खुद अपने स्रोतों पर ही निर्भर है। इसे कहीं से अतिरि त पानी मिलने का कोई रास्ता नहीं। नदी के बारे में ऐसा ही राजनीतिक उपयोगिता का खेल चलता रहा तो दिन दूर नहीं, जब सवाल खड़ा हो जाएगा कि नर्मदा को जिंदा रखने के लिए किससे जोड़ें? नेताओं को समझ आनी बाकी है कि नदियां जोड़ने से नहीं, बचाने से जिंदा रहती हैं, जो चिंता में नहीं है।.

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