उद्यमी गढऩे की टकसाल है उद्यमिता विद्यापीठ.......
बेरोजगारी भारत की सबसे बड़ी समस्या है। खासकर ग्रामीण क्षेत्र में यह विकराल रूप में दिखाई देती है। इसके निदान के लिए केन्द्र और राज्य में सरकारी स्तर पर कई योजनाएं बनाई गई, वह चल भी रही हैं, सरकारी फाइलों में उनके प्रयासों से
बेरोजगारी उन्मूलन तेजी से हो रहा है, लेकिन वास्तव में परिणाम ढाक के तीन पात वाले। ऐसे में देश की इस प्रमुख समस्या को हल करने की दिशा में चित्रकूट स्थित उद्यमिता विद्यापीठ मॉडल कहा जा सकता है। इन डेढ़़ दशकों में उद्यमिता विद्यापीठ ने कई ऐसे उद्यमी तैयार कर दिए हैं, जो आज भले ही दुनिया के जाने-माने उद्यमियों की फेहरिस्त में न हो, लेकिन आम लोगों के लिए वह रोल मॉडल बन गए हैं। इसमें सिर्फ पुरुष नहीं है, बल्कि युवक-युवतियों के साथ महिलाएं भी शामिल हैं।
१९९६ में नानाजी देशमुख के द्वारा जब उद्यमिता विद्यापीठ की नींव डाली गई, तब इसके उद्देश्य एकदम स्पष्ट थे। उद्यमिता विद्यापीठ के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को रोजगार से कैसे जोड़ा जाए, इसकी पूरी कार्ययोजना नानाजी ने सोच रखी थी। उस सोच पर काम करने का जिम्मा डाला गया डॉ. नंदिता पाठक के कंधों पर। पहले पहल १९ गृह उद्योगों से शुरू किया गया कार्य आज उद्यमी गढऩे का टकसाल बन गया है। उद्यमिता का लक्ष्य था भूगर्भजन्य, वनजन्य, पशुजन्य एवं कृषिजन्य सामग्री से लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना करना और बेरोजगारों को प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार में लगाना, इसके सार्थक परिणाम सामने आए। उद्यमिता विद्यापीठ केवल प्रशिक्षण देने तक सीमित नहीं था, क्योंकि सबको पता था कि शून्य आय वर्ग वाला व्यक्ति सिर्फ प्रशिक्षण लेकर काम शुरू नहीं कर पाएगा, इसलिए प्रशिक्षण के साथ उसे मशीनरी और सामग्री की मदद भी उपलब्ध कराई गई। आज उद्यमिता विद्यापीठ में ऐसी सामग्री निर्मित हो रही है, जो बड़े-बड़े कल-कारखानों में बनाई जाती है। खाने के सामान में अचार, मुरब्बा, पापड़, ब्रेड, बिस्किट के अलावा आंवले का आधुनिक युग का माउथवॉश, बच्चोंं के बीच लोकप्रिय कैंडी (आंवले से बना) जैसे सामान के अलावा, कपड़े का झोला, कुर्ता-पायजामा, कपड़े के कवर वाली फाइल, लकड़ी के सामान में सोफा-कुर्सी, टेवल लैम्प, दीवार लैम्प, दीवार को सुंदर बनाने वाले सजावट के सामान, अगरबत्ती, मोमबत्ती, वॉशिंग पाउडर, साबुन सहित बहुत सारे सामान का निर्माण किया जा रहा है। ये सारी चीजें अपने आसपास उपलब्ध सामग्री में ही निर्मित की जाती है। चित्रकूट के जंगल में आंवला, आम, महुआ, बेर सहित कई तरह से फूल पाए जाते हैं।
इन्हीं से ये सारी सामग्री बनाई जाती है। ग्रामीण लोगों को पहले उद्यमिता विद्यापीठ प्रशिक्षण दिया गया। उसके बाद उन्हें कच्ची सामग्री उपलब्ध कराकर सामान बनवाया जाता है और उस सामान को उद्यमिता विद्यापीठ खरीद लेता है, जिससे ग्रामीण बाजार में सामान बेचने के झंझट से बच जाते हैं। उद्यमिता विद्यापीठ द्वारा निर्मित सामग्री की मांग आज भारतभर में हो रही है, जो गांव वाले पहले अपने आसपास मौजूद सामान की समझ नहीं होने के कारण बेरोजगारी का जीवन गुजार रहे थे, उन गांवों में आज लघु उद्यमी तैयार हो गए हैं। वह लोग दूसरों को प्रशिक्षण देकर उन्हें भी बेरोजगारी से मुक्त कर रहे हैं। यह काम इतना आसान नहीं है। इसके लिए उद्यमिता विद्यापीठ की निदेशक डॉ. नंदिता पाठक को गांव-गांव जाकर लोगों को बताना पड़ा है।
ब्रिटानिया के सलाहकार पहुंचे उद्यमिता
ब्रिटानिया कम्पनी के सलाहकार एस. दुराई राजन उद्यमिता विद्यापीठ में हो रहे उत्पाद को देखकर चकित रह गए। उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिन उत्पादों को बचाने के लिए कई तकनीकी प्रशिक्षण की कसौटी से गुजरना पड़ता है, वही उत्पाद गांव की महिलाएं व लड़कियां बड़ी कुशलता और सफाई से कर रही थी। वैश्विक माहौल में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कड़ी स्पर्धा के दौर में देशी सामान का निर्माण और उसके प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने का काम देख वह अभिभूत थे। सारा काम देखकर वह खुद को रोक नहीं पाए और पूछ बैठे कितने दिन में ये लोग प्रशिक्षण ले लेते हैं। उन्हें बताया गया कि समय कम और लगन ज्यादा होने के कारण यह सब संभव हो पाया है। उद्यमिता विद्यापीठ द्वारा लोगों के मन में काम की भावना पैदा करने के लिये चलाए गए अभियान के सुखद परिणाम दिखाई देने लगे हैं। प्रशिक्षण देकर गांवों से गरीबी और बेरोजगारी मिटाने के लिए जा रहे प्रयास के सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। उत्पादन सह प्रशिक्षण इकाइयों के माध्यम से ग्राम नवरचना एवं रोजगारोन्मुखी गतिविधियों के साथ समस्त विकास को लेकर आगामी दस वर्ष की कार्ययोजना तैयार कर विजन २०२० का लक्ष्य लेकर चलाया जा रहा है। उन्होंने सारे काम को करीब से देखा। लोगों के काम करने का तरीका, सफाई, विधि तथा विपणन के काम से वह काफी प्रभावित हुए।
रोजगार और प्रशिक्षण का पर्याय
दिल्ली के वातानुकूलित कक्षों में बैठक कर देश के करोड़ों बेरोजगारों को रोजगार देने की योजना बनाने वाले कितने ही दावे व वायदे करें, लेकिन वास्तविकता यही है कि इस मामले में उनके हौंसले पस्त हो चुके हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे रोजगार कहां से लायेंगे। संगठित क्षेत्र के सार्वजनिक और निजी प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर नगण्य हो चुके हैं। गांवों के
लघु एवं कुटीर उद्योगों को अंग्रेजों ने योजनापूर्वक नष्ट किया था । महात्मा गांधी इन ग्रामीण उद्योगों को पुन: जीवित करना चाहते थे । चरखे को उन्होंने आजादी की लड़ाई के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था, लेकिन १५ अगस्त, १९४७ को अंग्रेज जिनके हाथों में सत्ता सौंपकर गये थे, उनमें वे ही लोग प्रमुख थे, जिन्होंने भारत को उन अंग्रेजों और यूरोपीय विद्वानों की नजर से जाना समझा था जिनके ज्ञान का आलम यह था कि ईसा मसीह के जन्म के १५०० सालों बाद तक भी वे नहीं जानते थे कि सोने की चिडि़या भारत है कहां । आजादी के बाद भारत के सत्ताधारी देश की गरीबी, बेकारी दूर करने का इलाज पश्चिमी देशों की रोशनी में तलाशते रहे। वहाँ श्रमशक्ति कम है, इस कारण पूंजी आधारित बड़े उद्योग लगाना उनकी मजबूरी थी, लेकिन भारत में श्रम शक्ति अधिक होने के बावजूद विकसित देशों से कर्ज लेकर भी उनकी नकल करते हुए यहां पूंजी आधारित बड़े उद्योग स्थापित किये गये । ऐसे उद्योगों के कारण उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन रोजगार के अवसर नहीं बढ़े। जहां कहीं आधुनिक प्रकार के उद्योग अस्तित्व में आते गये, वहां की आबादी शहर का रूप लेती गई । ग्रामीण अंचल रोजगाररहित थे और बेरोजगार युवक गांवों से शहरों की ओर पलायन करने लगे । अब बेरोजगारी के मामले में देश के कर्णधार लाचार हैं, लेकिन चित्रकूट में कार्यरत दीनदयाल शोध संस्थान के प्रकल्प उद्यमिता विद्यापीठ के पास इस समस्या का अचूक समाधान है और इस दिशा में वह पूरे देश का मार्गदर्शन कर सकता है । चित्रकूट में उसने वैकल्पिक औद्योगिकीकरण का आधारभूत ढांचा खड़ा कर लिया है ।
दीनदयाल शोध संस्थान ने युगानुकूल समग्र विकास का नमूना तैयार करने के लिए पुरुषोत्तम राम की वनवास के दौरान कर्मस्थली रहे चित्रकूट के आस-पास के सर्वाधित पिछड़े अभावग्रस्त ५०० ग्रामों का चयन किया और प्रथम चरण के रूप में ८० गांवों को पूर्णतया स्वावलंबी बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया । पांच-पांच गांवों के ग्राम समूह बनाये गये । प्रत्येक ग्राम समूह का दायित्व एक-एक समाज शिल्पी दम्पति को दिया गया । ये समर्पित स्नातक दम्पति गांव में ही निवास करते हैं । इन ८० गांवों का सर्वेक्षण कर १८ से ३५ वर्ष के १२४४ बेरोजगार युवकों एवं गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले २०२० गरीब परिवारों की पहचान की गई । कृषि विज्ञान केन्द्र और समाज शिल्पी दम्पतियों के सहयोग से उद्यमिता विद्यापीठ ने २१५ स्वयं सहायता समूह गठित किये । लोक कार्यक्रम एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी विकास परिषद (कपार्ट) ने इन्हें कच्चे माल के संग्रह और उनके प्रसंस्करण (मूल्य संवर्धन) के संबंध में आवश्यक प्रशिक्षण दिया । दो वर्ष के अल्प समय में ही ९६४ परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गये तथा ७११ बेरोजगार ग्रामीण युवक स्वरोजगार के द्वारा खुशहाली का जीवन जी रहे हैं । आगामी वर्ष तक गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले इन ८० गांवों के शेष सभी परिवार भी गरीबी रेखा से ऊपर उठ जायेंगे तथा शेष बचे बेरोजगार युवक भी स्वरोजगार से स्वावलंबित हो जायेंगे। इस अवधि में उद्यमिता विद्यापीठा ने विभिन्न व्यवसायियों में २३१ बेरोजगारों को प्रशिक्षित किया जिनमें से १२३ बेरोजगार नौकरी पा गये शेष ने अपना रोजगार प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार इन गांवों की न केवल आर्थिक स्थिति बेहतर हुई, बल्कि उद्यमिता विद्यापीठ ने अल्प मात्रा में आर्थिक सहयोग देकर ऐसे ६९ युवक-युवतियों को गांव में ही स्वावलंबित बनाया, जिन्हें यदि आर्थिक सहयोग न मिलता तो वे शहरों की ओर पलायन कर जाते।
समाज शिल्पी दम्पतियों ने बदल डाला जहाँ
समाज शिल्पी दम्पतियों के माध्यम से चित्रकूट क्षेत्र के ५०० गांवों में खुशहाली लाने का प्रयोग सफल रहा। इस प्रयोग का दूसरा परिणाम ये भी रहा कि समाज शिल्पी दम्पति के रूप में यहाँ काम करने के बाद यहाँ से निकला यह जोड़ा अब दूसरे जगहों पर इस प्रयोग के जरिए परिवर्तन लाने में जुट गया है । हरीश गुरुबख्शानी उनकी पत्नी सृष्टि ने जहाँ राजस्थान के सिरोही जिले के पांच गांवों में अपनी तरह के चार समाज शिल्पी दम्पतियों को साथ लेकर स्वावलम्बन के काम शुरू किए हैं, वहीं छत्तीसगढ़ के पेंड्रा रोड में परीक्षित और उनकी पत्नी तपस्विनी भी समाज परिवर्तन का बीड़ा उठाकर काम में जुट गए हैं । चित्रकूट की तर्ज पर समाज शिल्पी दम्पतियों के माध्यम से गोंडा में भी काम प्रारंभ किया गया है। जयप्रभा ग्राम, गोपालग्राम, इमिलिया कोडर और पंचपेड़वा में एक-एक परिवार मोर्चा संभालकर समाज निर्माण के काम में लग गया है । मोटे तौर पर यह धारणा बेमानी ही कही जाएगी कि स्त्री समुदाय की सक्रिय भागीदारी के बिना पुरुष अकेले राष्ट्र निर्माण के कार्य में सफल हो सकते हैं । सामाजिक ढांचे की मजबूती के लिए दोनों खंभों की महत्ता बराबर है । व्यक्ति, परिवार और समाज के वास्ते उनका जीवन एक-दूसरे के पूरक होना ही चाहिए। चित्रकूट स्थित दीनदयाल शोध संस्थान की गांव विकास की समाज शिल्पी योजना के पीछे यही दर्शन कार्यरत है। यह दर्शन एकात्म मानववाद से उपजा है जो संस्थान का निर्देशक सिद्घांत भी है, जिसका मत है कि परिवार ही समाज के केन्द्र में है। इस योजना की नींव १९९६ में ११ नवविवाहित दंपतियों की सहभागिता से रखी गई थी जो अब तक १५० से ज्यादा दंपतियों के योगदान की साक्षी है।
विदेशी को दिलाया काम
शिकागो के ८२ वर्षीय जीवन प्रकाश सौंधी को नानाजी का काम इतना भाया कि वह भी अमरीका की सुख-सुविधा को छोड़ भारत के गांवों की तरफ लौट पड़े । समस्या थी काम क्या करें ? उनकी इस समस्या को दीनदयाल शोध संस्थान ने हल किया वह सोलर ऊर्जा पर काम करते हैं, लिहाजा उन्हें बताया गया कि गांवों में छाए अंधकार को मिटाने में वह अहम भूमिका निभा सकते हैं । समाधान मिलते ही भारत के गांवों के विकास के लिए प्रयत्नशील हो गए। उन्होंने चित्रकूट क्षेत्र के ४४ विद्युत विहीन गांवों में सोलर ऊर्जा के माध्यम से उजाला करने में सहयोग किया है। धुआं रहित चूल्हे की योजना पर भी वह काम कर रहे हैं, जिसे वे शीघ्र ही चित्रकूट क्षेत्र के गांवों में लागू करने वाले हैं ।
१९९६ में नानाजी देशमुख के द्वारा जब उद्यमिता विद्यापीठ की नींव डाली गई, तब इसके उद्देश्य एकदम स्पष्ट थे। उद्यमिता विद्यापीठ के जरिए ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों को रोजगार से कैसे जोड़ा जाए, इसकी पूरी कार्ययोजना नानाजी ने सोच रखी थी। उस सोच पर काम करने का जिम्मा डाला गया डॉ. नंदिता पाठक के कंधों पर। पहले पहल १९ गृह उद्योगों से शुरू किया गया कार्य आज उद्यमी गढऩे का टकसाल बन गया है। उद्यमिता का लक्ष्य था भूगर्भजन्य, वनजन्य, पशुजन्य एवं कृषिजन्य सामग्री से लघु एवं कुटीर उद्योगों की स्थापना करना और बेरोजगारों को प्रशिक्षण देकर स्वरोजगार में लगाना, इसके सार्थक परिणाम सामने आए। उद्यमिता विद्यापीठ केवल प्रशिक्षण देने तक सीमित नहीं था, क्योंकि सबको पता था कि शून्य आय वर्ग वाला व्यक्ति सिर्फ प्रशिक्षण लेकर काम शुरू नहीं कर पाएगा, इसलिए प्रशिक्षण के साथ उसे मशीनरी और सामग्री की मदद भी उपलब्ध कराई गई। आज उद्यमिता विद्यापीठ में ऐसी सामग्री निर्मित हो रही है, जो बड़े-बड़े कल-कारखानों में बनाई जाती है। खाने के सामान में अचार, मुरब्बा, पापड़, ब्रेड, बिस्किट के अलावा आंवले का आधुनिक युग का माउथवॉश, बच्चोंं के बीच लोकप्रिय कैंडी (आंवले से बना) जैसे सामान के अलावा, कपड़े का झोला, कुर्ता-पायजामा, कपड़े के कवर वाली फाइल, लकड़ी के सामान में सोफा-कुर्सी, टेवल लैम्प, दीवार लैम्प, दीवार को सुंदर बनाने वाले सजावट के सामान, अगरबत्ती, मोमबत्ती, वॉशिंग पाउडर, साबुन सहित बहुत सारे सामान का निर्माण किया जा रहा है। ये सारी चीजें अपने आसपास उपलब्ध सामग्री में ही निर्मित की जाती है। चित्रकूट के जंगल में आंवला, आम, महुआ, बेर सहित कई तरह से फूल पाए जाते हैं।
इन्हीं से ये सारी सामग्री बनाई जाती है। ग्रामीण लोगों को पहले उद्यमिता विद्यापीठ प्रशिक्षण दिया गया। उसके बाद उन्हें कच्ची सामग्री उपलब्ध कराकर सामान बनवाया जाता है और उस सामान को उद्यमिता विद्यापीठ खरीद लेता है, जिससे ग्रामीण बाजार में सामान बेचने के झंझट से बच जाते हैं। उद्यमिता विद्यापीठ द्वारा निर्मित सामग्री की मांग आज भारतभर में हो रही है, जो गांव वाले पहले अपने आसपास मौजूद सामान की समझ नहीं होने के कारण बेरोजगारी का जीवन गुजार रहे थे, उन गांवों में आज लघु उद्यमी तैयार हो गए हैं। वह लोग दूसरों को प्रशिक्षण देकर उन्हें भी बेरोजगारी से मुक्त कर रहे हैं। यह काम इतना आसान नहीं है। इसके लिए उद्यमिता विद्यापीठ की निदेशक डॉ. नंदिता पाठक को गांव-गांव जाकर लोगों को बताना पड़ा है।
ब्रिटानिया के सलाहकार पहुंचे उद्यमिता
ब्रिटानिया कम्पनी के सलाहकार एस. दुराई राजन उद्यमिता विद्यापीठ में हो रहे उत्पाद को देखकर चकित रह गए। उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिन उत्पादों को बचाने के लिए कई तकनीकी प्रशिक्षण की कसौटी से गुजरना पड़ता है, वही उत्पाद गांव की महिलाएं व लड़कियां बड़ी कुशलता और सफाई से कर रही थी। वैश्विक माहौल में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से कड़ी स्पर्धा के दौर में देशी सामान का निर्माण और उसके प्रति लोगों में जागरूकता पैदा करने का काम देख वह अभिभूत थे। सारा काम देखकर वह खुद को रोक नहीं पाए और पूछ बैठे कितने दिन में ये लोग प्रशिक्षण ले लेते हैं। उन्हें बताया गया कि समय कम और लगन ज्यादा होने के कारण यह सब संभव हो पाया है। उद्यमिता विद्यापीठ द्वारा लोगों के मन में काम की भावना पैदा करने के लिये चलाए गए अभियान के सुखद परिणाम दिखाई देने लगे हैं। प्रशिक्षण देकर गांवों से गरीबी और बेरोजगारी मिटाने के लिए जा रहे प्रयास के सकारात्मक परिणाम सामने आने लगे हैं। उत्पादन सह प्रशिक्षण इकाइयों के माध्यम से ग्राम नवरचना एवं रोजगारोन्मुखी गतिविधियों के साथ समस्त विकास को लेकर आगामी दस वर्ष की कार्ययोजना तैयार कर विजन २०२० का लक्ष्य लेकर चलाया जा रहा है। उन्होंने सारे काम को करीब से देखा। लोगों के काम करने का तरीका, सफाई, विधि तथा विपणन के काम से वह काफी प्रभावित हुए।
रोजगार और प्रशिक्षण का पर्याय
दिल्ली के वातानुकूलित कक्षों में बैठक कर देश के करोड़ों बेरोजगारों को रोजगार देने की योजना बनाने वाले कितने ही दावे व वायदे करें, लेकिन वास्तविकता यही है कि इस मामले में उनके हौंसले पस्त हो चुके हैं। वे समझ ही नहीं पा रहे हैं कि वे रोजगार कहां से लायेंगे। संगठित क्षेत्र के सार्वजनिक और निजी प्रतिष्ठानों में रोजगार के अवसर नगण्य हो चुके हैं। गांवों के
लघु एवं कुटीर उद्योगों को अंग्रेजों ने योजनापूर्वक नष्ट किया था । महात्मा गांधी इन ग्रामीण उद्योगों को पुन: जीवित करना चाहते थे । चरखे को उन्होंने आजादी की लड़ाई के हथियार के रूप में इस्तेमाल किया था, लेकिन १५ अगस्त, १९४७ को अंग्रेज जिनके हाथों में सत्ता सौंपकर गये थे, उनमें वे ही लोग प्रमुख थे, जिन्होंने भारत को उन अंग्रेजों और यूरोपीय विद्वानों की नजर से जाना समझा था जिनके ज्ञान का आलम यह था कि ईसा मसीह के जन्म के १५०० सालों बाद तक भी वे नहीं जानते थे कि सोने की चिडि़या भारत है कहां । आजादी के बाद भारत के सत्ताधारी देश की गरीबी, बेकारी दूर करने का इलाज पश्चिमी देशों की रोशनी में तलाशते रहे। वहाँ श्रमशक्ति कम है, इस कारण पूंजी आधारित बड़े उद्योग लगाना उनकी मजबूरी थी, लेकिन भारत में श्रम शक्ति अधिक होने के बावजूद विकसित देशों से कर्ज लेकर भी उनकी नकल करते हुए यहां पूंजी आधारित बड़े उद्योग स्थापित किये गये । ऐसे उद्योगों के कारण उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन रोजगार के अवसर नहीं बढ़े। जहां कहीं आधुनिक प्रकार के उद्योग अस्तित्व में आते गये, वहां की आबादी शहर का रूप लेती गई । ग्रामीण अंचल रोजगाररहित थे और बेरोजगार युवक गांवों से शहरों की ओर पलायन करने लगे । अब बेरोजगारी के मामले में देश के कर्णधार लाचार हैं, लेकिन चित्रकूट में कार्यरत दीनदयाल शोध संस्थान के प्रकल्प उद्यमिता विद्यापीठ के पास इस समस्या का अचूक समाधान है और इस दिशा में वह पूरे देश का मार्गदर्शन कर सकता है । चित्रकूट में उसने वैकल्पिक औद्योगिकीकरण का आधारभूत ढांचा खड़ा कर लिया है ।
दीनदयाल शोध संस्थान ने युगानुकूल समग्र विकास का नमूना तैयार करने के लिए पुरुषोत्तम राम की वनवास के दौरान कर्मस्थली रहे चित्रकूट के आस-पास के सर्वाधित पिछड़े अभावग्रस्त ५०० ग्रामों का चयन किया और प्रथम चरण के रूप में ८० गांवों को पूर्णतया स्वावलंबी बनाने पर अपना ध्यान केन्द्रित किया । पांच-पांच गांवों के ग्राम समूह बनाये गये । प्रत्येक ग्राम समूह का दायित्व एक-एक समाज शिल्पी दम्पति को दिया गया । ये समर्पित स्नातक दम्पति गांव में ही निवास करते हैं । इन ८० गांवों का सर्वेक्षण कर १८ से ३५ वर्ष के १२४४ बेरोजगार युवकों एवं गरीबी की रेखा के नीचे रहने वाले २०२० गरीब परिवारों की पहचान की गई । कृषि विज्ञान केन्द्र और समाज शिल्पी दम्पतियों के सहयोग से उद्यमिता विद्यापीठ ने २१५ स्वयं सहायता समूह गठित किये । लोक कार्यक्रम एवं ग्रामीण प्रौद्योगिकी विकास परिषद (कपार्ट) ने इन्हें कच्चे माल के संग्रह और उनके प्रसंस्करण (मूल्य संवर्धन) के संबंध में आवश्यक प्रशिक्षण दिया । दो वर्ष के अल्प समय में ही ९६४ परिवार गरीबी की रेखा से ऊपर उठ गये तथा ७११ बेरोजगार ग्रामीण युवक स्वरोजगार के द्वारा खुशहाली का जीवन जी रहे हैं । आगामी वर्ष तक गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले इन ८० गांवों के शेष सभी परिवार भी गरीबी रेखा से ऊपर उठ जायेंगे तथा शेष बचे बेरोजगार युवक भी स्वरोजगार से स्वावलंबित हो जायेंगे। इस अवधि में उद्यमिता विद्यापीठा ने विभिन्न व्यवसायियों में २३१ बेरोजगारों को प्रशिक्षित किया जिनमें से १२३ बेरोजगार नौकरी पा गये शेष ने अपना रोजगार प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार इन गांवों की न केवल आर्थिक स्थिति बेहतर हुई, बल्कि उद्यमिता विद्यापीठ ने अल्प मात्रा में आर्थिक सहयोग देकर ऐसे ६९ युवक-युवतियों को गांव में ही स्वावलंबित बनाया, जिन्हें यदि आर्थिक सहयोग न मिलता तो वे शहरों की ओर पलायन कर जाते।
समाज शिल्पी दम्पतियों ने बदल डाला जहाँ
समाज शिल्पी दम्पतियों के माध्यम से चित्रकूट क्षेत्र के ५०० गांवों में खुशहाली लाने का प्रयोग सफल रहा। इस प्रयोग का दूसरा परिणाम ये भी रहा कि समाज शिल्पी दम्पति के रूप में यहाँ काम करने के बाद यहाँ से निकला यह जोड़ा अब दूसरे जगहों पर इस प्रयोग के जरिए परिवर्तन लाने में जुट गया है । हरीश गुरुबख्शानी उनकी पत्नी सृष्टि ने जहाँ राजस्थान के सिरोही जिले के पांच गांवों में अपनी तरह के चार समाज शिल्पी दम्पतियों को साथ लेकर स्वावलम्बन के काम शुरू किए हैं, वहीं छत्तीसगढ़ के पेंड्रा रोड में परीक्षित और उनकी पत्नी तपस्विनी भी समाज परिवर्तन का बीड़ा उठाकर काम में जुट गए हैं । चित्रकूट की तर्ज पर समाज शिल्पी दम्पतियों के माध्यम से गोंडा में भी काम प्रारंभ किया गया है। जयप्रभा ग्राम, गोपालग्राम, इमिलिया कोडर और पंचपेड़वा में एक-एक परिवार मोर्चा संभालकर समाज निर्माण के काम में लग गया है । मोटे तौर पर यह धारणा बेमानी ही कही जाएगी कि स्त्री समुदाय की सक्रिय भागीदारी के बिना पुरुष अकेले राष्ट्र निर्माण के कार्य में सफल हो सकते हैं । सामाजिक ढांचे की मजबूती के लिए दोनों खंभों की महत्ता बराबर है । व्यक्ति, परिवार और समाज के वास्ते उनका जीवन एक-दूसरे के पूरक होना ही चाहिए। चित्रकूट स्थित दीनदयाल शोध संस्थान की गांव विकास की समाज शिल्पी योजना के पीछे यही दर्शन कार्यरत है। यह दर्शन एकात्म मानववाद से उपजा है जो संस्थान का निर्देशक सिद्घांत भी है, जिसका मत है कि परिवार ही समाज के केन्द्र में है। इस योजना की नींव १९९६ में ११ नवविवाहित दंपतियों की सहभागिता से रखी गई थी जो अब तक १५० से ज्यादा दंपतियों के योगदान की साक्षी है।
विदेशी को दिलाया काम
शिकागो के ८२ वर्षीय जीवन प्रकाश सौंधी को नानाजी का काम इतना भाया कि वह भी अमरीका की सुख-सुविधा को छोड़ भारत के गांवों की तरफ लौट पड़े । समस्या थी काम क्या करें ? उनकी इस समस्या को दीनदयाल शोध संस्थान ने हल किया वह सोलर ऊर्जा पर काम करते हैं, लिहाजा उन्हें बताया गया कि गांवों में छाए अंधकार को मिटाने में वह अहम भूमिका निभा सकते हैं । समाधान मिलते ही भारत के गांवों के विकास के लिए प्रयत्नशील हो गए। उन्होंने चित्रकूट क्षेत्र के ४४ विद्युत विहीन गांवों में सोलर ऊर्जा के माध्यम से उजाला करने में सहयोग किया है। धुआं रहित चूल्हे की योजना पर भी वह काम कर रहे हैं, जिसे वे शीघ्र ही चित्रकूट क्षेत्र के गांवों में लागू करने वाले हैं ।
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