मौत के गांव!
देश में गांवों की मृत्यु दर का बढ़ना ही साबित करता है कि इलाज नाम की चीज गायब है। यदि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश की चिंता है कि गांवों में स्वास्थ्य सुविधाएं सिरे से गायब हैं और ज्यादातर हिस्सों में इसका वजूद तक नहीं है तो ज्मिेदार कौन है?शहर के अस्पतालों में गांव के बीमारों की भीड़ बता ही रही है कि इस मुद्दे पर सरकारें निहायत निक्मी और लापरवाह हैं। गांवों में महिलाओं और बच्चों की बीमारियों से बढ़ती मौतों का कारण इलाज का न मिलना और शहर आने की हैसियत का न होना है। गरीब और अभाव के कारण गांव का बीमार शहर आ नहीं सकता और शहर के अस्पताल का महंगा खर्च उठाना हर किसी के बस का नहीं। गांव में इलाज की व्यवस्था सरकार की ज्मिेदारी है और सरकारें इस पर फेल हैं। यदि मंत्री ने माना कि 70 फीसदी गांव इलाज की सुविधा से मरहूम हैं तो इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या होगी? कौन से विकास का ढोल पीटते हैं हम यदि आम आदमी की जान ही नहीं बचा पाते!मामूली बीमारियों के लिए भी गांव में डॉक्टर, अस्पताल और दवा का पता नहीं है और इसका फायदा नकली डॉक्टरों, ओझाओं और पाखंडियों को मिल रहा है। सड़कों पर बच्चों को जनती मां शर्म से सिर झुकाने के लिए काफी हैं, लेकिन शर्म है कि आती नहीं। देश की सरकारों के अरबों रुपए इस मद में हर बरस कहां जाते हैं, नमूना उत्तरप्रदेश का एचएनआरएम घोटाला है, जिसमें ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं के दस हजार करोड़ रुपए नेताओं और अफसरों ने डकार लिए। मंत्री ने यह तो माना कि गांवों में इलाज नहीं है, लेकिन उन्हें शायद यह नहीं मालूम कि बीमारों की मौत का आंकड़ा भी सरकार के पास नहीं है कि उसे दर्ज करे कौन? जहां दवा नहीं है, वहां मौत दर्ज करने की व्यवस्था कैसे और क्यों हो? जिन्हें चारों ओर विकास नजर आता है, शायद उनकी आंख इस सचाई से खुले और गांवों में इलाज के लिए कुछ करने का विचार आए।
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