भारतीय संदर्भ में भाषायी मीडिया की स्वतंत्रता

भाषायी मीडिया के लिए मीडिया की नैतिकता और स्वतंत्रता दोनों अपने आधुनिक मायनों में कुछ अजनबी, अपेक्षाकृत नये किस्म के विचार हैं। भारतीय प्रेस परिषद की सालगिरह पर जारी एक विशेष स्मृतिग्रंथ में आधुनिक तेलुगू पत्रकारिता के शिखर-पुरूष ''ईनाडु’ समूह के प्रमुख रामोजी राव लिखते हैं: ''मैं स्वीकारता हूँ कि मुझे (विमर्श के लिए) चुने गए विषय : मीडिया नैतिकता:’ ''श्रृंखला या स्वतंत्रता?’ ने कुछ चकरा दिया। मैं तो पुरानी रवायतों का पक्षधर हूँ और साफ कहना चाहता हूँ कि इस विषय पर दो राय हो ही नहीं सकती। स्वतंत्र, आत्मनिर्भर और विश्वसनीय मीडिया नैतिक बुनियाद पर ही खड़ा किया जाता है, और वह एक नैतिक दायरे में ही काम करता है। इसकी लक्ष्मण रेखा को पार करने वाले ऐसा अपने जोखिम पर करते हैं, और उनकी आजादी और विश्वसनीयता दोनों अंतत: नष्ट हो जाते हैं। उपरोक्त पंक्तियों के पीछे का सोच भारतीय दर्शन पर आधारित है। इसके अनुसार नैतिकता एक सनातन धु्रवसत्य है। समय या देश या कार्यक्षेत्र विशेष के संदर्भ में उसमें उन्नीस-बीस जैसा कुछ नहीं होता। यह दर्शन ''स्वतंत्रता’ शब्द को भी अंग्रेजी के शब्द ''फ्रीडम’ के समतुल्य नहीं मानता। भारतीय मन के लिए अत्यंतिक स्वतंत्रता का मतलब है ''मुक्ति’ और मुक्ति तो तमाम भौतिक रिश्तों, संदर्भों के परित्याग के बाद ही संभव है। इसलिए भौतिक जीवन के स्त्री-स्वतंत्रता या मीडिया की स्वतंत्रता जैसे (अंग्रेजी से अनूदित) सवालों से रामोजी की ही तरह कई लोगों को स्वेच्छाचारिता और स्वैछाचार की बू आती है आर लक्ष्मणरेखा का सिद्घांत भी उन्हें स्त्रियों के संदर्भ में किसी तरह के गैरवाजिब या प्रकाशन समूहों के लिए कुंठा की संभावित वजह भी नहीं प्रतीत होता। मनुष्य की परतंत्रता और देश-काल से जुड़े विचारों से उठते सवालों के जवाब भारतीय दर्शन ठोस आर्थिक तथा समाजिक संदर्भों में प्राय: नहीं खोजता है। वह मानव-जीवन की संपूर्णता को लेकर ऐसे बुनियादी सवाल उठाता  है, जिनके आगे किसी खास मनुष्य या भौतिक इकाई की स्वतंत्रता या नैतिकता के मसले निहायत क्षुद्र प्रतीत होते हैं। इस दर्शन के अनुसार, हर धंधे की जड़ में एक समाज स्वीकृत सनातन नैतिकता होती है और उसकी लक्ष्मण रेखा द्वारा तय कार्यविधि ही उसकी सीमा और परिणाम तय करती है। अत: नए मीडिया के लिए नैतिक मूल्यांकन में बदलाव की जरूरत और इसके पक्ष में बदलते सामाजिक और निजी संदर्भों की बात उठाना परंपरावादियों की राय में बेमतलब ही है।

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