hamare lachhar lokayukt.....
हमारे ‘लाचार’ लोकायुक्त.....
देश के तमाम लोकायुक्तों से बात की गई, तो पाया कि वे सिर्फ और सिर्फ नाम मात्र के ‘अधिकारी’ हैं। भ्रष्टाचार के मामले में जब वे शिकायत मिलने पर किसी मंत्री या अफसर के खिलाफ जांच करते हैं, तो जांच के जरूरी संसाधनों के लिए भी वे सरकार पर निर्भर हैं। एक लंबा समय जांच शुरू होने में ही बीत जाता है। आइए, इस रिपोर्ट के जरिए जानते हैं, देश के कुछ लोकायुक्तों के क्रियाकलापों की असली तस्वीर...
राज्यों में लोकायुक्त और केंद्र में लोकपाल बहाल करने के लिए अनशन करने वाले अन्ना हजारे की लड़ाई कहां तक जाएगी, अभी कहा नहीं जा सकता। वर्तमान में जिन 17 राज्यों में लोकायुक्त बहाल हैं, वे हाथी के दांत से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मध्य प्रदेश और कर्नाटक के लोकायुक्तों की बात छोड़ दें, तो बाकी के सभी लोकायुक्त सरकार की नीतियों से परेशान हैं और उसके दबाव से जमींदोज हो चुके हैं। जहां तक लोकायुक्तों के हाथ से किसी बड़े नेता या नौकरशाहों को दंडित कराने का सवाल है, तो उसमें कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े और उत्तर प्रदेश के लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा हैंं। इसके अलावा कोई भी राज्य सरकार इन लोकायुक्तों की सिफारिशों को न तो मान रही है, और न ही उन सिफारिशों पर कार्रवाई की जा रही है।
ऐसे में ये लोकायुक्त ‘दंतहीन’ बन कर रह गए हैं। देश में अभी 28 राज्यों में से 17 राज्यों में लोकायुक्त हैं। लोकायुक्त का गठन करने वाला पहला राज्य उड़ीसा है। सन् 1970 में वहां पहला लोकायुक्त गठित हुआ था, लेकिन राज्य सरकार ने 1993 में इस पद को समाप्त कर दिया। वर्तमान में महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, असम, हरियाणा, केरल, पंजाब, झारखंड, हिमाचल और उत्तराखंड आदि राज्यों में लोकायुक्त काम कर रहे हैं। लोकायुक्तों द्वारा जन शिकायतों के आधार पर बनाई गई जांच रिपोर्ट और उन पर हुई कार्रवाई को जानने के लिए कई लोकायुक्तों से बातचीत की गई। उससे जो तथ्य सामने आए, वे चौंकाने वाले तो हैं ही, बल्कि वहां पर लोकायुक्त के होने या न होने की पोल भी खोलते हैं।
पहली बार हुई ठोस कार्रवाई
उत्तर प्रदेश की जनता मायावती सरकार से आहत है। सरकार लोकपाल को उसका हक नहीं दे रही। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी पार्टियां माया सरकार को घोटालों की सरकार से ज्यादा कुछ नहीं मानती। भाजपा ने तो इस सरकार पर सौ से ज्यादा घोटालों का आरोप लगाया है। इनमें से कुछ शिकायतों की जांच लोकायुक्त भी कर रहे हैं। सरकार ने हाल ही में कदाचार के आरोप में एक मंत्री अवधपाल को बाहर का रास्ता दिखाया है। सरकार की इस कार्रवाई से राज्य के लोकायुक्त जस्टिस नरेंद्र किशोर मेहरोत्रा फूले नहीं समा रहे। मेहरोत्रा कहते हैं कि ‘सरकार ने उनकी सिफारिश पर अमल करते हुए दोषी को दंडित किया है। यह देश के लिए सौभाग्य की बात है। इससे पूरे देश में अच्छा संदेश जाएगा। इसके साथ ही, इससे जनता जागरूक तो होगी ही, लोकायुक्त पर लोगों का भरोसा बढेगा।’ जाहिर है इस प्रदेश के लिए यह एक मिसाल तो है ही। बता दें कि सूबे में 1975 से ही लोकायुक्त काम कर रहे हैं। मजे की बात यह है इन 36 सालों में आज तक किसी ने किसी को दोषी नहीं ठहराया। जस्टिस मेहरोत्रा कहते हैं कि अभी तो उनके पास छह विधायक और दो मंत्रियों का मामला दर्ज है। उनकी कार्रवाई भी पूरी हो चुकी है। दोष भी साबित हो चुका है। हम चाहते हैं कि जाते-जाते दोषियों को दंड दे दिया जाए। उनका कहना है कि उनके पास कोई जांच एजेंसी नहीं है और न ही कर्मचारी। हमें सरकारी तंत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। कई राज्यों के लोकायुक्त सरकार के दबाव में हैं। खासकर, बिहार के लोकायुक्त तो काम ही नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिए जरूरी है, सबके लिए समान कानून और समान सुविधाएं’। जस्टिस मेहरोत्रा अन्ना के समर्थन में हैं, लेकिन वे उनके तरीके से सहमत नहीं हैं। वह कानूनी प्रक्रिया के हिमायती हैं और हाई जुडिशियरी को लोकपाल में शामिल करने के विरोधी हैं।
न धन है, न ही जांच तंत्र
बिहार के नए लोकायुक्त बने हैं जस्टिस चंद्रमोहन प्रसाद। वे किसी से बात करना पसंद नहीं करते। यहां के पूर्व लोकायुक्त आरएन प्रसाद अपना दुखड़ा बताते हैं। यहां के लोकायुक्त सुविधाविहीन हैं। उनके पास न फंड है और न ही जांच तंत्र। यही वजह है कि आज तक सूबे में एक भी दागी दोषी नहीं ठहराया गया। राज्य एडवोकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश चंद्र वर्मा कहते हैं कि सरकार को सबसे पहले लोकायुक्त को मजबूत करना चाहिए। इसके लिए कानून में परिवर्तन कर अध्यादेश लाया जाए।
राजस्थान : नहीं सुनता कोई
राजस्थान के लोकायुक्त जस्टिस जीएल गुप्ता सरकारी दांव-पेंच और राजनीतिक दबाव का रोना रो रहे हैं। वे कई वर्षों से सरकार के सामने अपनी परेशानी रखते आ रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुनता ही नहीं। सरकार को जांच में कलई खुलने का भय सता रहा है। यहां के लोकायुक्त की रपटें कई सालों से ठंडे बस्ते में बंद हैं। भ्रष्टाचार का चिट्ठा खोलने वाले लोकायुक्त की वार्षिक रिपोर्ट को नौकरशाह बस्ते से बाहर ही नहीं निकलने देते। इससे लोकायुक्त और सरकार की कार्रवाई के बारे में किसी को जानकारी नहीं मिल रही है। यह बात दीगर है कि युवा सांसदों में शुमार भंवर जितेंद्र सिंह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के कहने पर अन्ना हजारे को मनाने के प्रयास में लगे थे, लेकिन जिस लोकायुक्त के जरिए भ्रष्टाचारियों को दंडित करने की बात की जा रही है, उसकी हालत राजस्थान में दयनीय है। राज्य में लोकायुक्त के 2004 से 2009 तक की वार्षिक प्रतिवेदन रिपोर्ट आज तक सदन पटल पर नहीं रखी गई। जस्टिस गुप्ता बार-बार सरकार से लोकायुक्त को मजबूत करने की अपील करते आ रहे हैं। गुप्ता कहते हैं कि राज्य में लोकायुक्त कानून में सरकार की अनुमति से अन्वेषण के लिए केंद्र या राज्य की एजेंसी या अधिकारी से सेवाएं लेने का प्रावधान है, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में उसकी अपनी जांच एजेंसी है। प्रख्यात कानूनविद और राज्य के तत्कालीन राज्यपाल एनसी जैन ने भी राज्य लोकायुक्त की कमजोरी की तरफ इशारा किया था। उन्होंने कहा था कि कमजोर कानून और उचित व्यवस्था के अभाव में लोकायुक्त अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं।
केंद्रीय कानून के तहत लोकायुक्त बने
जस्टिस अमरेश्वर सहाय झारखंड राज्य के दूसरे लोकायुक्त हैं। उनके पास भ्रष्टाचार के कई मामले दर्ज हैं। उनकी जांच भी हुई, लेकिन सरकार उनकी सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सरकारी तंत्र और पेंशन से जुड़े सैकड़ों मामले लोकायुक्त के पास हैं। सहाय कहते हैं कि ‘लोकपाल की तरह ही केंद्रीय कानून के तहत लोकायुक्त बने, तो बात बनेगी। जब तक कानून और शक्तियों में एकरूपता नहीं होती, तब तक इस प्रकार की स्वायत्तशासी संस्थाओं के गठन के कोई मायने नहीं हैं। अधिकतर लोकायुक्त सुर्खियां नहीं बटोरते, क्योेंकि उनके पास कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह अलग से जांच एजेंसी नहीं है।’ हालांकि अन्ना के आंदोलन से अकुलाए मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने लोकायुक्त को शक्तियां प्रदान करने और मुख्यमंत्री को इसके दायरे में लाने की बात कही है, लेकिन यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।
झारखंड के लोकायुक्त जस्टिस अमरेश्वर सहाय इस राज्य के दूसरे लोकायुक्त हैं। वे जनता व उसकी समस्याओं के प्रति बेहद संजीदा भी हैं। वे न केवल अन्ना आंदोलन के समर्थक हैं, बल्कि लोकपाल के तहत प्रधानमंत्री से लेकर सभी सरकारी कर्मचारियों को रखने के हिमायती भी हैं। लेकिन सहाय नहीं चाहते कि उच्च न्यायपालिका लोकपाल के अधीन हो। उनका मानना है कि न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाने से कई तरह की संवैधानिक परेशानियां आ सकती हैं। फिर संविधान में संशोधन करने की जरूरत पड़ सकती है। लोकायुक्त सहाय की सबसे बड़ी परेशानी कोई भी जांच अधिकार न होने की है। सहाय कहते हैं कि ‘राज्य कानून के तहत हमें किसी तरह की जांच शक्ति नहीं दी गई है।
जब हम किसी की जांच ही नहीं कर सकते और न ही भ्रष्टाचारियों के घर छापा मार सकते हैं, तो फिर हमें पद पर बने रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जरूरत है, राज्य कानून में संशोधन कर लोकायुक्त को अधिक से अधिक शक्ति प्रदान करने की। लोकायुक्त तभी सक्षम हो सकता है, जब उसके पास अलग से जांच एजेंसी हो और अलग से वित्तीय फंड मिले। हम पूरी तरह से अकर्मण्य सरकारी तंत्र पर निर्भर हैं। हम पूरी तरह से पंगु हैं। ऐसी स्थिति में जनता को न्याय नहीं मिल सकता।’
पहली जांच में ही ‘रोजे’ गले पड़े
दिल्ली के लोकायुक्त जस्टिस मनमोहन सरीन कहते हैं कि जब तक हमारे पास तलाशी और जब्ती का अधिकार नहीं होगा, तब तक किसी को दंडित करना मुश्किल है। नौकरशाहों और नेताओं पर नकेल कसने के लिए कानून को मजबूत बनाने की जरूरत है, वरना जनता की अपेक्षा अधूरी ही रहेगी। सरीन वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता की वकालत भी करते हैं। सरीन ने फरवरी में दिल्ली सरकार के मंत्री राजकुमार चौहान को कर चोरी के मामले में दोषी पाया था और सरकार से उन्हें हटाने की सिफारिश की थी। सरकार ने लोकायुक्त की इस सिफारिश को नहीं माना और उल्टे सरीन को हटाने की बात कह दी। दिल्ली की यह पहली घटना थी कि किसी लोकायुक्त ने मंत्री को दोषी ठहराया था। इसके अलावा आज तक किसी भी लोकायुक्त ने किसी बडेÞ नेता को हटाने की सिफारिश नहीं की।
ऐसे में ये लोकायुक्त ‘दंतहीन’ बन कर रह गए हैं। देश में अभी 28 राज्यों में से 17 राज्यों में लोकायुक्त हैं। लोकायुक्त का गठन करने वाला पहला राज्य उड़ीसा है। सन् 1970 में वहां पहला लोकायुक्त गठित हुआ था, लेकिन राज्य सरकार ने 1993 में इस पद को समाप्त कर दिया। वर्तमान में महाराष्ट्र, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, गुजरात, असम, हरियाणा, केरल, पंजाब, झारखंड, हिमाचल और उत्तराखंड आदि राज्यों में लोकायुक्त काम कर रहे हैं। लोकायुक्तों द्वारा जन शिकायतों के आधार पर बनाई गई जांच रिपोर्ट और उन पर हुई कार्रवाई को जानने के लिए कई लोकायुक्तों से बातचीत की गई। उससे जो तथ्य सामने आए, वे चौंकाने वाले तो हैं ही, बल्कि वहां पर लोकायुक्त के होने या न होने की पोल भी खोलते हैं।
पहली बार हुई ठोस कार्रवाई
उत्तर प्रदेश की जनता मायावती सरकार से आहत है। सरकार लोकपाल को उसका हक नहीं दे रही। कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी पार्टियां माया सरकार को घोटालों की सरकार से ज्यादा कुछ नहीं मानती। भाजपा ने तो इस सरकार पर सौ से ज्यादा घोटालों का आरोप लगाया है। इनमें से कुछ शिकायतों की जांच लोकायुक्त भी कर रहे हैं। सरकार ने हाल ही में कदाचार के आरोप में एक मंत्री अवधपाल को बाहर का रास्ता दिखाया है। सरकार की इस कार्रवाई से राज्य के लोकायुक्त जस्टिस नरेंद्र किशोर मेहरोत्रा फूले नहीं समा रहे। मेहरोत्रा कहते हैं कि ‘सरकार ने उनकी सिफारिश पर अमल करते हुए दोषी को दंडित किया है। यह देश के लिए सौभाग्य की बात है। इससे पूरे देश में अच्छा संदेश जाएगा। इसके साथ ही, इससे जनता जागरूक तो होगी ही, लोकायुक्त पर लोगों का भरोसा बढेगा।’ जाहिर है इस प्रदेश के लिए यह एक मिसाल तो है ही। बता दें कि सूबे में 1975 से ही लोकायुक्त काम कर रहे हैं। मजे की बात यह है इन 36 सालों में आज तक किसी ने किसी को दोषी नहीं ठहराया। जस्टिस मेहरोत्रा कहते हैं कि अभी तो उनके पास छह विधायक और दो मंत्रियों का मामला दर्ज है। उनकी कार्रवाई भी पूरी हो चुकी है। दोष भी साबित हो चुका है। हम चाहते हैं कि जाते-जाते दोषियों को दंड दे दिया जाए। उनका कहना है कि उनके पास कोई जांच एजेंसी नहीं है और न ही कर्मचारी। हमें सरकारी तंत्र पर निर्भर रहना पड़ता है। कई राज्यों के लोकायुक्त सरकार के दबाव में हैं। खासकर, बिहार के लोकायुक्त तो काम ही नहीं कर पा रहे हैं। इसके लिए जरूरी है, सबके लिए समान कानून और समान सुविधाएं’। जस्टिस मेहरोत्रा अन्ना के समर्थन में हैं, लेकिन वे उनके तरीके से सहमत नहीं हैं। वह कानूनी प्रक्रिया के हिमायती हैं और हाई जुडिशियरी को लोकपाल में शामिल करने के विरोधी हैं।
न धन है, न ही जांच तंत्र
बिहार के नए लोकायुक्त बने हैं जस्टिस चंद्रमोहन प्रसाद। वे किसी से बात करना पसंद नहीं करते। यहां के पूर्व लोकायुक्त आरएन प्रसाद अपना दुखड़ा बताते हैं। यहां के लोकायुक्त सुविधाविहीन हैं। उनके पास न फंड है और न ही जांच तंत्र। यही वजह है कि आज तक सूबे में एक भी दागी दोषी नहीं ठहराया गया। राज्य एडवोकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष योगेश चंद्र वर्मा कहते हैं कि सरकार को सबसे पहले लोकायुक्त को मजबूत करना चाहिए। इसके लिए कानून में परिवर्तन कर अध्यादेश लाया जाए।
राजस्थान : नहीं सुनता कोई
राजस्थान के लोकायुक्त जस्टिस जीएल गुप्ता सरकारी दांव-पेंच और राजनीतिक दबाव का रोना रो रहे हैं। वे कई वर्षों से सरकार के सामने अपनी परेशानी रखते आ रहे हैं, लेकिन उनकी कोई सुनता ही नहीं। सरकार को जांच में कलई खुलने का भय सता रहा है। यहां के लोकायुक्त की रपटें कई सालों से ठंडे बस्ते में बंद हैं। भ्रष्टाचार का चिट्ठा खोलने वाले लोकायुक्त की वार्षिक रिपोर्ट को नौकरशाह बस्ते से बाहर ही नहीं निकलने देते। इससे लोकायुक्त और सरकार की कार्रवाई के बारे में किसी को जानकारी नहीं मिल रही है। यह बात दीगर है कि युवा सांसदों में शुमार भंवर जितेंद्र सिंह कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के कहने पर अन्ना हजारे को मनाने के प्रयास में लगे थे, लेकिन जिस लोकायुक्त के जरिए भ्रष्टाचारियों को दंडित करने की बात की जा रही है, उसकी हालत राजस्थान में दयनीय है। राज्य में लोकायुक्त के 2004 से 2009 तक की वार्षिक प्रतिवेदन रिपोर्ट आज तक सदन पटल पर नहीं रखी गई। जस्टिस गुप्ता बार-बार सरकार से लोकायुक्त को मजबूत करने की अपील करते आ रहे हैं। गुप्ता कहते हैं कि राज्य में लोकायुक्त कानून में सरकार की अनुमति से अन्वेषण के लिए केंद्र या राज्य की एजेंसी या अधिकारी से सेवाएं लेने का प्रावधान है, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में उसकी अपनी जांच एजेंसी है। प्रख्यात कानूनविद और राज्य के तत्कालीन राज्यपाल एनसी जैन ने भी राज्य लोकायुक्त की कमजोरी की तरफ इशारा किया था। उन्होंने कहा था कि कमजोर कानून और उचित व्यवस्था के अभाव में लोकायुक्त अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतर रहे हैं।
केंद्रीय कानून के तहत लोकायुक्त बने
जस्टिस अमरेश्वर सहाय झारखंड राज्य के दूसरे लोकायुक्त हैं। उनके पास भ्रष्टाचार के कई मामले दर्ज हैं। उनकी जांच भी हुई, लेकिन सरकार उनकी सिफारिशों पर कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सरकारी तंत्र और पेंशन से जुड़े सैकड़ों मामले लोकायुक्त के पास हैं। सहाय कहते हैं कि ‘लोकपाल की तरह ही केंद्रीय कानून के तहत लोकायुक्त बने, तो बात बनेगी। जब तक कानून और शक्तियों में एकरूपता नहीं होती, तब तक इस प्रकार की स्वायत्तशासी संस्थाओं के गठन के कोई मायने नहीं हैं। अधिकतर लोकायुक्त सुर्खियां नहीं बटोरते, क्योेंकि उनके पास कर्नाटक और मध्य प्रदेश की तरह अलग से जांच एजेंसी नहीं है।’ हालांकि अन्ना के आंदोलन से अकुलाए मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने लोकायुक्त को शक्तियां प्रदान करने और मुख्यमंत्री को इसके दायरे में लाने की बात कही है, लेकिन यह उनकी दृढ़ इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है।
झारखंड के लोकायुक्त जस्टिस अमरेश्वर सहाय इस राज्य के दूसरे लोकायुक्त हैं। वे जनता व उसकी समस्याओं के प्रति बेहद संजीदा भी हैं। वे न केवल अन्ना आंदोलन के समर्थक हैं, बल्कि लोकपाल के तहत प्रधानमंत्री से लेकर सभी सरकारी कर्मचारियों को रखने के हिमायती भी हैं। लेकिन सहाय नहीं चाहते कि उच्च न्यायपालिका लोकपाल के अधीन हो। उनका मानना है कि न्यायपालिका को लोकपाल के अधीन लाने से कई तरह की संवैधानिक परेशानियां आ सकती हैं। फिर संविधान में संशोधन करने की जरूरत पड़ सकती है। लोकायुक्त सहाय की सबसे बड़ी परेशानी कोई भी जांच अधिकार न होने की है। सहाय कहते हैं कि ‘राज्य कानून के तहत हमें किसी तरह की जांच शक्ति नहीं दी गई है।
जब हम किसी की जांच ही नहीं कर सकते और न ही भ्रष्टाचारियों के घर छापा मार सकते हैं, तो फिर हमें पद पर बने रहने से कोई फर्क नहीं पड़ता। जरूरत है, राज्य कानून में संशोधन कर लोकायुक्त को अधिक से अधिक शक्ति प्रदान करने की। लोकायुक्त तभी सक्षम हो सकता है, जब उसके पास अलग से जांच एजेंसी हो और अलग से वित्तीय फंड मिले। हम पूरी तरह से अकर्मण्य सरकारी तंत्र पर निर्भर हैं। हम पूरी तरह से पंगु हैं। ऐसी स्थिति में जनता को न्याय नहीं मिल सकता।’
पहली जांच में ही ‘रोजे’ गले पड़े
दिल्ली के लोकायुक्त जस्टिस मनमोहन सरीन कहते हैं कि जब तक हमारे पास तलाशी और जब्ती का अधिकार नहीं होगा, तब तक किसी को दंडित करना मुश्किल है। नौकरशाहों और नेताओं पर नकेल कसने के लिए कानून को मजबूत बनाने की जरूरत है, वरना जनता की अपेक्षा अधूरी ही रहेगी। सरीन वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता की वकालत भी करते हैं। सरीन ने फरवरी में दिल्ली सरकार के मंत्री राजकुमार चौहान को कर चोरी के मामले में दोषी पाया था और सरकार से उन्हें हटाने की सिफारिश की थी। सरकार ने लोकायुक्त की इस सिफारिश को नहीं माना और उल्टे सरीन को हटाने की बात कह दी। दिल्ली की यह पहली घटना थी कि किसी लोकायुक्त ने मंत्री को दोषी ठहराया था। इसके अलावा आज तक किसी भी लोकायुक्त ने किसी बडेÞ नेता को हटाने की सिफारिश नहीं की।
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