ढोंग यानी नूरा-कुश्ती!
जब लोकसभा में बहस की शुरुआत करते हुए भाजपा की सुषमा स्वराज ने कहा था कि हम सरकार को हराना नहीं, मनाना चाहते हैं तो ही समझ में आ गया था कि सरकारी दल ने सारे गणित अपनी तरफ कर लिए हैं।अखबारों में ही दो दिन से छप रहा था कि सपा, बसपा का साथ मिल गया है कांग्रेस को तो यह खबर हवा में से तो पैदा हुई नहीं होगी। जब प्रधानमंत्री ने इन नेताओं को डिनर पर न्यौता था, तभी लग गया था कि समझौता तो नहीं, सौदा हो चुका है। संसद में गिनती से पहले ही आ्म्बेडकर स्मारक के लिए जगह दे दी गई थी। कांग्रेस के चेहरे पर एक भी शिकन नहीं उभर रही थी तो भी वजह यही थी। यह राजनीति का ऐसा फिक्स-मैच था, जो नतीजे से पहले ही जगजाहिर हो गया था। यानी नेताओं को हराना अभी खिलाड़ियों के बस में नहीं है। खेल में तो नतीजे के बाद फिक्संग के आरोप लगते हैं। दरअसल, एफडीआई के मामले में किसी भी दल की हमेशा एक राय नहीं रही। इसी कारण यह समझ में आ रहा था कि विरोध के लिए ही विरोध किया जा रहा है। अगर बड़ी-बड़ी कम्पनियां आ रही हैं तो आम आदमी का बूता तो है नहीं कि दुकान खोल सके। इन नेताओं के कुनबेवाले ही इसके रखवाले भी होंगे। रात को टीवी बहस में विरोधी नेता यह तक कहने को तैयार नहीं थे कि हमारे राज्य में इन कम्पनियों को नहीं आने देंगे।
क्या यह सभी दलों की नूरा-कुश्ती नहीं थी? सभी भ्रष्टाचार के दलदल में गले-गले तक धंसे हुए हैं और पूरे देश में आप यानी आम आदमी पार्टी वाले अरविंद केजरीवाल ने नाक में दम कर रखा है। चूंकि केजरीवाल का निशाना कोई एक दल नहीं है तो सारे दल मिलकर उनके खिलाफ एक नहीं हो गए हैं? फुलझड़ी से ध्यान हटाने के लिए अनार नहीं जलाया है सभी दलों ने? सपा और बसपा ने तो एक तरह से चौराहे पर अपनी इज्जत खुद ही उतार ली और बता दिया कि समझौते के तहत वे फायदे के लिए अपने ही खांकरे करने में पीछे नहीं रहने वाले। सभी दलों के इस ढोंग (इसे नाटक कहकर, कला का अपमान तो नहीं करें... कृपया!) को आम जनता ने ठीक से समझ लिया और इसीलिए उसकी दिलचस्पी इस मामले में नहीं के बराबर थी। जिस मैच का नतीजा पहले से तय और पता हो तो किसे इतनी फुर्सत है कि अपना समय खराब करे।
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