चुप चौपायों का हक!


चुनाव आयोग की इस बात से सहमत होना जरूरी है कि चुनाव में चौपायों का क्‍या काम? उन पर बेकार का जुल्म और शोषण।
जो बोल नहीं सकते और जो मनुष्य की फितरत का हिस्सा नहीं हैं, उनका बेजा इस्तेमाल तो गलत ही नहीं, अमानवीय भी है। देखा जाता है कि चुनाव में पशुओं का उपयोग सब तरह से होता है। मनुष्य न केवल उन्हें रैली और प्रदर्शन का हिस्सा बनाता है, बल्कि वोटों के लिए कटवाता भी है। हाथी, घोड़े, ऊंट और बैल के साथ गधा और बकरी भी नहीं बख्शी जाती और जब इनका चुनावी इस्तेमाल हो रहा होता है तो कोई इनकी भूख, प्‍यास और भार से दबा होने की चिंता तक नहीं करता। जरूरत ही क्‍या है पशुओं के इस्तेमाल की? क्‍या हमें अपनी बात कहने के बाकी सभ्य और शालीन मानवीय तरीके कम पड़ रहे हैं, जो हम मूक पशु पर अपनी जोर- जबर्दस्ती थोप देते हैं।
पशु को इस्तेमाल करते समय हमारी पाश्विकता को रोकने का इसके अलावा और क्‍या रास्ता हो कि इस पर सख्त कानूनी रोक लगे। जब राजनीति वाले दया करने को तैयार नहीं हैं तो इन पर भी किसी तरह की दया नहीं की जानी चाहिए और पशुओं को सताने वालों के खिलाफ मामला दर्ज किया जाना चाहिए। पशुओं का राजनीतिक इस्तेमाल केवल चुनाव के समय ही रोक लगाने के लिए नहीं हो। पशुओं के उपयोग पर स्थायी रोक हो। कई तरह के राजनीतिक धतकरमों में पशुओं को सताया जाता है। गधे, घोड़े और कुड्डो प्रदर्शन का हिस्सा बना दिए जाते हैं और कई बार तो कबूतर और सांप तक राजनीतिक मजमेबाजी से नहीं बच पाते। राजनीति में पशुओं का इस्तेमाल कानूनी रूप से दंडनीय अपराध बनाया जाए, तब जाकर चुप रहने वाले चौपायों को पूरी राहत मिल पाएगी। हो ऐसा।

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