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मंहगाई के मौसम में भूख की ‘राज’नीति.....


मंहगाई के मौसम में भूख की ‘राज’नीति…

मंहगाई के मौसम में भूख की 'राज'नीति
चुनाव सिर पर हैं और सरकार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है, चारों ओर से घोटालों के आरोपों से भरे तीर चल रहे हैं…ऐसे में खुद को बचाना भी है और सत्ता सुख भी बरकरार रखना है। जाहिर है, भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार गरीबों को पटाने की जुगत लगा रही है। इसलिए अपने सरकारी राजनीतिक पिटारे से कांग्रेस ने निकाला है ‘खाद्य सुरक्षा कानून’। अब देखना यह है कि सरकार इसे कब, कैसे और कितनी ईमानदारी से लागू करती है?
गरीबों को रोटी देने के नाम पर आजादी के बाद से ही हमारी सरकार योजनाएं चलाती रही है। गरीबों के उत्थान के नाम पर जितनी योजनाएं इस देश में चलीं, शायद ही कहीं चली हों। लेकिन आज तक गरीबों का उत्थान नहीं हो सका। आलम यह है कि आजादी के 64 सालों में जिस गति से आबादी बढ़ती गई, उससे भी तेज गति से गरीबी के चंगुल में लोग फंसते गए। यह देश की गरीबी ही है कि यहां जाति और धर्म के नाम पर राजनीति चलती रही है और भांति-भांति के जीव चुनाव में जीतते रहे हैं। आइए, एक नजारा मौजूदा सरकार की एक योजना पर डालते हैं। यूपीए-वन के 72000 करोड़ रुपये के किसान बोनस के बाद अब यूपीए-2 का लगभग एक लाख करोड़ रुपये का फूड कूपन या नकद पैसे देने वाली योजना की पूरी तैयारी कर ली गई हैं। यह योजना नेशनल फूड सुरक्षा बिल 2011 के नाम से जाना जा रहा है। हालांकि इस योजना पर पिछले साल से ही काम चल रहा था, लेकिन गरीबों तक इस महती योजना को कैसे पहुंचाया जाए, इसको लेकर कई अड़चनें आ रही थीं। अब ये अड़चनें खत्म हो गई हैं। अब पुराने ड्राफ्ट में बदलाव लाकर जो सुधार किए गए हैं, उसके मुताबिक सरकार इस योजना को जनवितरण प्रणाली के तहत ही लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रही है। इसमें आधार कार्ड का भी सहयोग लिया जाएगा, ताकि कोई गड़बड़ी नहीं हो।
फूड और जन वितरण प्रणाली केंद्रीय मंत्री केबी थामस कहते हैं कि ‘पहले इस योजना को नकद पैसे देकर चलाने की बात थी, लेकिन उसमें कई खामियां आने की भी संभावना थी। इसलिए सरकार अब इस योजना को जन वितरण प्रणाली के जरिए ही सफल करने की तैयारी कर रही है। चूंकि यह योजना सरकार की महती योजना है, इसलिए इसका लाभ अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे, इसकी व्यवस्था में हम लगे हुए हैं।’ नए फूड सुरक्षा बिल के तहत ग्रामीण इलाकों के 75 फीसदी से ज्यादा लोगों और शहरी इलाकों के 50 फीसदी लोगों को सब्सिडाइज्ड रेट पर अनाज दिया जाएगा। इसमें केंद्र और राज्य सरकार के बीच योजना के खर्च का वितरण किया जाना है। बदले ड्राफ्ट में 12 हजार करोड़ रुपये गर्भवती महिलाओं और बच्चों पर खर्च किए जाने की बात है। गर्भवती महिलाओं को 6 माह तक हर महीने 1000 रुपये दिए जाएंगे। देश में हर साल करीब सवा दो लाख ऐसी महिलाएं होती हैं। इस योजना के तहत आबादी का पांच फीसदी उन लोगों को सस्ते दाम पर भोजन देने की भी बात है, जो सबसे गरीब हैं। इस योजना पर 9 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। इस योजना को प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता वाले ग्रुप ऑफ मिनिस्टर द्वारा पारित कर दिया गया है और अब इसे कैबिनेट के पास भेजने की तैयारी चल रही है। संभव है, इस बिल को 15 दिसंबर तक संसद में पेश किया जाएगा। मकसद है, गरीबों को सस्ता खाद्यान्न देना। फायदा देश के गरीब परिवारों का होगा। कितने परिवारों का भला होगा, इस पर बहस जारी है।
एक तरफ फूड सब्सिडी बिल में लगातार बढ़ोतरी हो रही है, तो दूसरी ओर खेती में सरकारी निवेश में लगातार कमी हो रही है। अस्सी के दशक में, जहां जीडीपी का 3 फीसदी खेती पर सब्सिडी के रूप में दिया जाता था, 2001 के बाद यह बढ़कर 7 परसेंट पहुंच गया। इसी दौरान खेती में निवेश जीडीपी के 3.4 से घटकर 1.9 परसेंट रह गया। अनुमान है कि खेती में निवेश पर औसतन 9.5 परसेंट का रिटर्न मिलता है, जबकि खाद सब्सिडी पर रिटर्न महज 0.85 परसेंट है। लेकिन सरकारी मकहमे को खैरात बांटने की आदत-सी हो गई है। निवेश बढ़ाकर खेती की उत्पादकता बढ़ाने की जÞहमत कौन उठाए? सबसे आसान रास्ता है, सब्सिडी बढ़ाते जाओ। तभी तो बंदरबांट की गुंजाइश बनती है। हमारे नेता लंबे समय की योजना पर कब काम करेंगे? देश की जनता को सरकार से पूछना चाहिए कि 60,000 करोड़ के खर्च का ब्यौरा क्या है सरकार के पास? अन्यथा इतनी बड़ी रकम को खाने के लिए पहले से ही दलाल बैठे हुए हैं।
सरकार ने इसके लिए पूरी तैयारी कर ली है कि पांच राज्यों में होने वाले चुनावों से पहले इस बिल को संसद से पास कर दिया जाए और राजनीतिक लाभ उठाया जाए। फूड सुरक्षा से संबंधित यह बिल खास तौर से नेशनल एडवाइजरी कौंसिल की पहल पर लाने का प्रयास सरकार कर रही है। इसे सोनिया गांधी की महत्वपूर्ण योजनाओं में से एक कहा जा सकता है। योजना आयोग का मानना है कि देश में गरीबी-रेखा से नीचे रहने वाले परिवारों की संख्या 6 करोड़ 52 लाख है। लेकिन राज्य सरकारों का कहना है कि उन्होंने 11 करोड़ 50 लाख परिवारों को बीपीएल कार्ड बांटे और देश में इतने ही गरीब परिवार हैं। कहानी में एक और ट्विस्ट है। प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कमेटी के पूर्व अध्यक्ष सुरेश तेंदुलकर की अध्यक्षता में बनी कमेटी का मानना है कि देश में 8 करोड़ तीस लाख ऐसे परिवार हैं, जो वाकई मुश्किल से अपनी गुजर-बसर कर रहे हैं। यानी, केंद्र सरकार की नजर में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या साढ़े 6 करोड़ के पास है, तो राज्य सरकार की नजर में यह आंकड़ा साढ़े 11 करोड़ के पास है। उधर, तेंदुलकर कमेटी देश के 8 करोड़ लोगों को गरीबी रेखा के नीचे मान रही है। कौन सा आंकड़ा सही है और कौन सा गलत, इस पर बहस हो रही है। योजना आयोग ने इस पर माथापच्ची करके अपनी रिपोर्ट मंत्रियों के समूह के पास भेज दी है। लेकिन एक बात लगभग तय है कि फूड सिक्योरिटी कानून बनने के बाद गरीब परिवार को हर महीने 3 रुपये किलो के भाव से गेहूं या चावल मिलेगा। सस्ता खाद्यान्न बांटना सरकार की सामाजिक जिम्मेदारी का हिस्सा है, लेकिन इतना खाद्यान्न आएगा कहां से, यह सबसे बड़ा सवाल है।
सन् 2009-10 में सरकार ने करीब 600 लाख टन खाद्यान्न की खरीद की थी। यह कानून लागू होता है, तो अकेले बीपीएल परिवार के लिए 345 लाख टन गेहूं की जरूरत होगी। उस पर से एपीएल यानी, एबव पॉवर्टी लाइन परिवारों के लिए अलग से खाद्यान्न का इंतजाम करना पड़ेगा। मतलब ये हुआ कि सरकार जितना खाद्यान्न खरीदता है, लगभग उतने का ही बंटवारा हो जाएगा। फिर बफर स्टॉक का क्या होगा? और बफर स्टॉक में कमी हुई, तो खाने-पीने के सामान की महंगाई रोकने में सरकार कुछ कर पाएगी क्या? शायद सरकार के लोगों का इस ओर ध्यान नहीं है, होगा भी तो वे असहाय होंगे। सबसे बड़ा सवाल ये है कि फूड सिक्योरिटी कानून को लागू कैसे किया जाए? इस मामले में तीन मॉडलों पर चर्चा हो रही है। इस बात पर विचार हो रहा है कि क्यों न गरीब परिवारों को फूड कूपन दे दिया जाए। फूड कूपन देने से फायदा ये होगा कि लोग जब चाहें, जिस क्वालिटी का चाहें, जिस स्टोर से चाहें, कूपन देकर खाद्यान्न खरीद सकते हैं। सरकार को न तो बाजÞार से खाद्यान्न खरीदने का झंझट होगा और न ही स्टोरेज की चिंता। अभी तक मंडी से खरीदने, उसके ट्रांसपोर्टेशन और स्टोरेज में ही भारी खर्च हो जाता है। इससे सरकार की बचत होगी, जिसका फायदा लोगों को मिलेगा। फूड सिक्योरिटी को लागू करने का दूसरा तरीका है, लोगों को सीधे धनराशि ही दे दी जाए।
इसके पक्ष में बोलने वालों का तर्क है कि पोस्ट आॅफिस या बैंक एकाउंट के जरिए सीधे पैसा ट्रांसफर करने से सरकार की काफी बचत होगी, फूड सब्सिडी का पूरा फायदा लोगों को मिलेगा। इस सिस्टम में भी सरकार को न तो बाजार से खाद्यान्न खरीदने की समस्या आएगी, न ही स्टोरेज की चिंता। सवाल ये है कि कैश ट्रांसफर की प्रणाली में इसकी चर्चा अगर नहीं होती कि खाद्यान्न के दाम काफी तेजी से बढ़ते हैं, जैसा कि पिछले पांच सालों से हो रहा है, तो फिर उतने ही पैसे से लोग कैसे खाद्यान्न खरीद पाएंगे? एक तरीका है कि महंगाई दर के हिसाब से कैश ट्रांसफर बढ़ा दिया जाए। तो फिर फूड सब्सिडी बिल तो बढ़ता ही जाएगा। लोगों को खद्यान्न पहुंचाने का तीसरा तरीका ये है कि जन वितरण प्रणाली का सहारा लिया जाए। इस सिस्टम की सबसे बड़ी खामी रही है कि इसके जरिए वितरित खाद्यान्न, जरूरतमंदों तक नहीं पहुंच पाता है। नेशनल सैंपल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक, जो वाकई गरीब हैं, उनमें से 56 फीसदी के पास बीपीएल कार्ड हैं ही नहीं। उस पर जन वितरण प्रणाली चलाने वालों की मनमानी और ब्लैक मार्केटिंग का खतरा। ऐसे में सवाल ये उठता है कि फूड सिक्योरिटी कानून की बात तो हो रही है, लेकिन कितने लोगों को इसका फायदा पहुंचाना है, यह अभी तय नहीं है। साथ ही, इतने भारी खर्च का फायदा लोगों तक कैसे पहुंचाया जाए, इसका भी ब्लू प्रिंट नहीं है। क्या फूड सिक्योरिटी बिल से पहले इन मसलों पर सहमति बनाने की जरूरत नहीं है? ऐसा नहीं होता, तो 100 करोड़ रुपये के बड़े हिस्से की बंदरबांट हो जाएगी।

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